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युगप्रधान-स्थविरावलि-वन्दन
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. "शाण्डिल्यं,-शाण्डिल्यनामानं वन्दे, किम्भूतमित्याह-'आर्यजीतधरं' श्रारात्-सर्वहेयधर्मेभ्योऽर्वाग् यातम्-आर्यः । 'जीत' मिति सूत्रमुच्यते, जीतं स्थितिः कल्पो मर्यादा व्यवस्थेति हि पर्यायाः, मर्यादाकारणं च सूत्रमुच्यते, तथा 'पृङ, धारणे' ध्रियते धारयतीति धरः, 'लिहादिभ्य' इत्यच् प्रत्ययः, पार्यजीतस्य धरः आर्यजीतधरस्तम् , अन्ये तु व्याचक्षते--शाण्डिल्यस्यापि आर्यगोत्रो शिष्य जीतधरनामा सूरिरासीत्, तं वन्दे-इति ।"
मूलम्-ति-समुद्द-खाय-कित्ति, दीव-समुद्देसु गहिय-पेयालं।
वंदे अज्ज-समुदं, अंक्खुभिय-समुद्द-गंभीरं ॥२६॥ छाया-त्रि-समुद्र-ख्यात-कीर्ति, द्वीप-समुद्रेषु गृहीत-पेयालम् ।
___ वन्दे-आर्यसमुद्र, अक्षुभित-समुद्र-गम्भीरम् ॥२६॥ पदार्थ-ति-समुद्द-खाय-कित्ति–तीन समुद्रों पर्यन्त प्रख्यात कीर्तिवाले दीव-समुद्दे सु गहियपेयालंविविध द्वीप और समुद्रों में प्रामाणिकता प्राप्त करनेवाले अथवा द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के विशिष्ट विद्वान्, अक्खुभियसमुद्द-गंभीरं-क्षोभ रहित समुद्र की तरह गंभीर, अज्ज-समुद्द-आर्यसमुद्र को वन्दन करता हूँ। . भावार्थ-पूर्व, दक्षिण और पश्चिम तीनों दिशाओं में लवणसमुद्र पर्यन्त ख्यातिप्राप्त, विविध द्वीप-समुद्रों में, प्रमाण प्राप्त अथवा 'द्वीपसागर प्रज्ञप्ति के विद्वान' क्षोभरहित समुद्र के तुल्य गम्भीर आचार्य आर्यसमुद्रजी भी, देववाचकजी के हृदय-सिंहासन पर आसीन थे, इसीलिए उन्हें वन्दन किया गया है ।
टीका-इस गाथा में आचार्य शाण्डिल्य के उत्तरवर्ती --
(१५) श्रीआर्यसमुद्र नामक आचार्य को वन्दन किया गया है । साथ ही आचार्य की महत्ता और विद्वत्ता का परिचय भी दिया गया है जैसे कि
तिसमुद्दखायकित्तिं-पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशा में जिनकी कीर्ति समुद्र-पर्यन्त व्याप्त हो रही है। क्योंकि इस भरतक्षेत्र की सीमा तीन दिशाओं में समुद्र-पर्यन्त है तथा उत्तर दिशा में वैताढ्य एवं हिमवान् पर्वत है, अत: वे अपनी शुभ्र कीर्ति द्वारा भरतक्षेत्र में प्रसिद्ध हो रहे थे । दूसरे चरण में यह कथन किया गया है कि
गहिय पेयालं-इससे सिद्ध होता है कि द्वीपसागर प्रज्ञप्ति आदि शास्त्रों के वे पूर्ण ज्ञाता होने से लोकवाद में प्रामाणिक माने जाते थे। तीसरे चरण में उन्हें वन्दना की गई है तथा चतुर्थ पद में उनकी गम्भीरता का समुद्र के तुल्य दिग्दर्शन कराया गया है, जैसे कि--
अक्खुभियसमुद्द-गम्भीरं-अक्षुभित-समुद्रवत् गंभीरम्-इसका भाव यह है कि प्रत्येक विषय में जिनकी समद्र के समान गम्भीरता है. कारण कि उक्त गूणवाला ही अपने अभीष्ट की सिद्धि कर सकता है। स्तुतिकर्ता ने अज्जसमुई-पद दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि ऐसी कीर्ति और विज्ञान प्रायः आर्य पुरुष ही प्राप्त कर सकते हैं । अतः आर्य पद युक्तिसंगत ही है। पेयालं-शब्द प्रमाण अर्थ में आया हुआ जानना चाहिए।