________________
३२
नन्दीसूत्रम्
सुप्रतिबुद्ध आदि आवलिका क्रमशः निकली, इसकी विशेष जानकारी जिज्ञासुओं को दशाश्रुतस्कन्ध की टीका से करनी चाहिये। क्योंकि यहां पर इस विषय का अधिकार नहीं है। इस स्थान पर महागिरि स्थविरावली का अधिकार है। इस पर वृत्तिकार ने लिखा है कि-- _ “तत्र सुहस्तिन प्रारभ्य सुस्थित सुप्रतिबुद्ध श्रादि क्रमेणावलिका विनिर्गता सा यथा दशाश्रुतस्कन्धे तथैव द्रष्टव्या, न च तयेहाधिकारः, तस्यामावालिकायां प्रस्तुताध्ययनकारकस्य देववाचकस्याभावात्, तत इह महागिरि-प्रावलिकयाधिकारः।"
महागिरि आचार्य के दो शिष्य हुए हैं-बहुल और बलिस्सह—ये दोनों यमल भ्राता और कौशिक गोत्रवाले थे, किन्तु दोनों में से
(११) बलिस्सह तयुग के प्रधान आचार्य हुए हैं । दोनों यमलभ्राता तथा गुरुभ्राता होने से स्तुतिकार ने उन्हें बड़ी श्रद्धा से नमस्कार किया है।
मूलम्-हारियगुत्तं साइं च वंदिमो हारियं च सामज्जं ।
वंदे. कोसिय-गोत्तं संडिल्लं अज्जजीयधरं ॥२८॥ छाया-हारीतगोत्रं स्वाति च वन्दे हारीतं च श्यामार्यम् ।
वन्दे कौशिकगोत्रं शाण्डिल्यमार्यजीतधरम् ॥२८॥ पदार्थ-हारियगुत्तं साइं-हारीत-गोत्री स्वाति को च-और हारियं च सामज्जं-हारीत-गोत्री । श्यामार्य को वन्दे-वन्दन करता हूं, कोसिय-गोत्तं संडिल्लं-कौशिक-गोत्री शाण्डिल्य अज्जजीयधरंआर्यजीतधर को वन्दे-वन्दन करता है।
भावार्थ-आचार्य स्वाति, श्यामार्य, आचार्य शाण्डिल्य, इन सबको मैं वन्दन । करता हूं।
टीका-इस गाथा में भी देववाचकजी ने श्रद्धास्पद युगप्रधान आचार्य-प्रवरों का परिचय देकर वन्दना की है।
(१२) हारीतगोत्रीय श्रीस्वातिजी। (१३) हारीतगोत्रीय श्रीश्यामार्यजी। ' (१४) कौशिकगोत्रीय आर्यजीतधर शाण्डिल्यजी।
आर्यजीतधर यह शाण्डिल्य आचार्य का विशेषण है। 'आर्य' का अर्थ होता है,जो सभी प्रकार के त्यागने योग्य धर्मों से दूर निकल गए हैं, उन्हें आर्य कहते हैं । 'जीत' शब्द का अर्थ होता है-शास्त्रीय मर्यादा, जिसे 'कल्प' भी कहते हैं। उस मर्यादा का धारण करनेवाले को 'आर्य जीतधर' कहते हैं। वृत्तिकार ने आर्य जीतधर शाण्डिल्य आचार्य का विशेषण स्वीकृत किया है, किन्तु अन्य किन्हीं के विचार में ... आर्य जीतधरजी के शाण्डिल्य आचार्य शिष्य हुए और युग-प्रधान आचार्य भी। अत: उनको भी देववाचकजी ले वन्दन किया है। वृत्तिकार के इस विषय में निम्नलिखित शब्द हैं -