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________________ - गणधरावलि छाया-प्रथमोऽत्र इन्द्रभूति-द्वितीयः पुनर्भवत्यग्निभूतिरिति । तृतीयश्च वायुभूति,-स्ततो व्यक्तः सुधर्मा च ॥२२॥ मण्डित-मौर्यपुत्रा, - वकम्पितश्चैवाचलभ्राता च । मैतार्यश्च प्रभासो, गणधराः सन्ति वीरस्य ॥२३॥ भावार्थ-भगवान महावीर के गण-व्यवस्थापक ग्यारह गणधर 'हुए हैं जोकि उनके मुख्य शिष्य थे। उनके पवित्र नाम-१ इन्द्र भूति उनका अपर नाम गौतम है, २ अग्निभूति, ३ वायुभूति, ये तीनों सहोदर भ्राता थे, ४ श्रीव्यक्त, ५ सुधर्मा, ६ मण्डितपुत्र, ७ मौर्यपुत्र, ८ अकम्पित, ६ अचलभ्राता, १० मैतार्य, ११ प्रभास । ये सब जन्म से ब्राह्मण थे। टीका-उपर्युक्त दो गाथाओं में ग्यारह गणधरों के नामोत्कीर्तन किए गए हैं, ये सभी श्रमण भगवान महावीर के मुख्य शिष्य थे। इनमें अग्रगण्य गणधर इन्द्रभूति जी, गौतम गोत्र से अधिक प्रसिद्ध थे। वैशाख शुक्ला दशमी को श्रीमहावीर ने केवलज्ञान प्राप्त किया। उधर मध्यापापा नगरी में सोमिल नामा एक समृद्ध ब्राह्मण ने अपने यज्ञ-समारोह को सफल बनाने के लिये ग्यारह महा-महोपाध्यायों को, उनके छात्रों सहित आमन्त्रित किया। वे भी अपने-अपने छात्रसंघ के साथ उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आए। - उसी नगरी के बाहिर यज्ञ-भूमि से नातिदूर ईशानकोण में महासेन नामा एक उद्यान था। वहां केवलज्ञानालोक से आलोकित श्रमण भगवान् महावीर समवसरण में देशना दे रहे थे। जनता यज्ञ-भूमि की अपेक्षा समवसरण की ओर अधिक आकृष्टं हो रही थी। इन्द्रभूतिजी के मन में प्रतिद्वन्द्वता से विचारतरंग उठी, वह कौन मायावी है जिसने चारों ओर से जनता को अपनी ओर आकृष्ट कर रखा है और हमारी यज्ञ-भूमि में कोई भी आने के लिए तैयार नहीं होता ? अहंकार और कोपावेश से अपने छात्रों सहित इन्द्रभूतिजी समवसरण की ओर चल पड़े । इधर सर्वज्ञ महावीर ने सन्मुख आते ही उन्हें नाम और गोत्र से सम्बोधित किया और उनके हृदय के अन्तस्तल में रही शंका व प्रश्न को व्यक्त किया तथा साथ ही युक्तिसंगत प्रमाणों से वचन के द्वारा समाधान किया। इससे इन्द्रभूति जी अत्यन्त प्रभावित हुए और छात्रों सहित दीक्षित हुए। इसी प्रकार अन्य महामहोपाध्यायों ने भी सर्वज्ञता की परीक्षा लेने के लिए मन से ही प्रश्न किए और भगवान् ने वचन से उनके सभी प्रश्नों का समाधान किया । इस अतिशयपूर्ण ज्ञान से वे सभी प्रभावित होकर भगवान् महावीर के कर-कमलों से दीक्षित हुए। जो पहले वैदिक परम्परा में महामहोपाध्याय थे, वे ही भगवान् महावीर के गणधर बने । गणधर का अर्थ है जो गण को धारण करे अर्थात् अपने आश्रित मुनिगण को सिखाना, पढ़ाना, उन्हें संयम में स्थिर करना, प्रतिबोध देना, भटके हुए साधकों को मोक्ष-पथ के पथिक बनाना, तीर्थकर के प्रवचनों को सूत्र रूप में गुंफन करना और अपने कल्याण के साथ दूसरों का भी कल्याण करना । गण-गच्छ का कार्यभार गणधरों के दृढ़ कन्धों पर होता है। भगवान् से अर्थ सुनकर द्वादशांग-गणिपिटक की रचना गणधर ही करते हैं। उनका वह प्रवचन आज भी उपकार कर रहा है। जैसे कि कहा भी है "एते च गणभृतः सर्वेऽपि तथाकल्पत्वाद् भगवदुपदिष्टं उप्पन्नेह वेत्यादि मातृकापादत्रयमधि AN
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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