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________________ नन्दीसूत्रम् ता छाया-(वन्दे) ऋषभमजितं सम्भवमभिनंदनसुमतिसुप्रभसुपार्श्वम् । शशि :- पुष्पदंत - शीतल-श्रेयांसं - वासुपूज्यं च ॥२०॥ विमलमनन्तं च धर्म शांति कुंथुमरं च मल्लि च । मुनिसुव्रत-नमि-नेमि, पार्श्व तथा वर्द्धमानं च ॥२१॥ भावार्थ-ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, सुप्रभ, पद्मप्रभ, शशी-चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शांति; कुथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि-अरिष्टनेमि, पार्श्व और वर्द्धमान-श्रमण भगवान महावीर को वन्दन करता हूँ। टीका-उपर्युक्त प्रस्तुत दो गाथाओं में तीर्थकरों के नामों का कीर्तन किया गया है। पांच भरत तथा पांच ऐरावत, इन दस क्षेत्रों में अनादि कालचक्र का ह्रास-विकास चल रहा है। छः आरे अवसर्पिणी के और छ: आरे उत्सपिणी के, दोनों को मिलाकर एक कालचक्र होता है। अवसर्पिणी में ह्रास हो और उत्सर्पिणी में विकास । प्रत्येक अवसर्पिणी तथा उत्सपिणी में चौवीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नव बलदेव. नव वासुदेव तथा नव प्रति-वासुदेव, इस प्रकार त्रिषष्टि शलाका पुरुष होते हैं। ऋषभदेव भगवान् और उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती तीसरे आरे में हुए हैं। शेष सब महापुरुष चौथे आरे में हुए हैं । आजकल अवसर्पिणी काल का पांचवां आरा चल रहा है। उत्सर्पिणी काल के तीसरे आरे में तेइस तीर्थंकर, ११ चक्रवर्ती, नव बलदेव, नव वासुदेव और नव प्रतिवासुदेव होते हैं। उसके चौथे आरे में : चौवीस तीर्थकर और बारह चक्रवर्ती होने का अमादि नियम है। तीर्थंकरपद विश्व में सर्वोत्तम पद माना जाता है । तीर्थकर देव धर्मनीति के महान प्रवर्तक होते हैं। भगवान् महावीर चौवीसवें तीर्थकर हुए हैं। सभी तीर्थकर साधु-साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप भावतीर्थ की स्थापना करते हैं। वे किसी पन्थ की . बुनियाद नहीं डालते बल्कि धर्म का मार्ग बतलाते हैं। वे स्वयं तीन लोक के पूज्य एवं वंद्य होते हैं। उनके कोई गुरु नहीं होते, उनकी साधना में न कोई सहायक होता है और न कोई मार्ग-प्रदर्शक, वे घर में ही तीन ज्ञान के धारक होते हैं। चारित्र लेते ही उन्हें विपूलमति मनःपर्याय ज्ञान हो जाता है। घा कर्मों के सर्वथा विलय. होते ही उन्हें केवल ज्ञान हो जाता है। तत्पश्चात् धर्म-तीर्थ की स्थापना करते हैं। इसी कारण उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। पद्मप्रभजी का अपर नाम यहां सुप्रभ का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। चन्द्रप्रभ का अपर नाम शशी, और सुविधि जी का अपर नाम पुष्पदन्त है। गणधरावलि मूलम्-पढमित्थ इंदभूई, बीए पुण होइ अग्गिभूइत्ति । तइए य वाउभूई, तो वियत्ते सुहम्मे य ॥२२॥ मंडिय-मोरियपुत्ते, अकंपिए चेव अयलभाया य । मेयज्जे य पहासे, गणहरा हुन्ति वीरस्स ॥२३॥
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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