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________________ संघ-स्तुति विषयक उपसंहार ... संघ-स्तुति विषयक उपसंहार मूलम्-नगर-रह-चक्क-पउमें, चंदे-सूरे-समुद्द-मेरुम्मि। जो उवमिज्जइ सययं, तं संघ-गुणायरं वंदे ॥१६॥ छाया-नगर-स्थ-चक्र-पदो, चन्द्रे सूर्ये समुद्रे मेरौ। - य उपमीयते सततं, तं संघ-गुणाकरं वन्दे ।।१६।। पदार्थ-नगर-रह-चक्क-पउमे-नगर- रथ-चक और पद्म में चंदे-सूरे समुद्दे मेरुमिम-चन्द्र, सूर्य, समुद्र और मेरु में जो उबमिज्जइ सययं-जो सतत उपमित किया जाता है तं संव-गुणायरं वंदे-गुणों के अक्षयनिधि, उस संघ को स्तुतिपूर्वक वन्दना करता हूं। भावार्थ-नगर, रथ, चक्र, पद्म, चन्द्र, सूर्य, समुद्र तथा मेरु इनमें जो अतिशायी गुण होते हैं तदनुरूप संघ में भी अद्भुत दिव्य लोकोत्तरिक अतिशायी गुण हैं। अतः संघ को - सदैव इनसे उपमित किया जाता है । जो संघ अनंत-अनंतः गुणों की खान है, ऐसे विशिष्ट संघ को वन्दन करता हूँ। टीका-इस गाथा में नगर, रथ, चक्र, पद्म, चन्द्र, सूर्य, समुद्र और मेरु इन आठ उपमाओं से श्रीसंघ को उपमित करके संघस्तुति का उपसंहार किया है । स्तुतिकार ने गाथा के अन्तिम चरण में श्रद्धा से नतमस्तक हो श्रीसंघ को नमस्कार किया है । तथा च तं संव-गुणायरं वंदे इस पद से सूचित किया है कि श्रीसंघ गुणों का आकर (खान) है। उस संघ को मैं वन्दना करता हूँ, वह मेरा ही नहीं अपितु विश्ववन्ध है। इस कथन से यह भी सिद्ध होता है कि नाम, स्थापना और द्रव्यरूप निक्षेष को छोडकर केवल भावनिक्षेप ही वन्दनीय है। क्योंकि जो गुणाकार है वही भावनिक्षेप है। वृत्तिकारने उपर्यक्त दोनों गाथाएं ग्रहण नहीं की, किन्तु टिप्पणी में "अधिकमिदं युगमन्यत्र" ऐसा उल्लेख किया गया है। ये दो गाथाएं बहुत-सी प्राचीन प्रतियों में देखी जाती हैं, इसी कारण ये दोनों गाथाएं यहां लिखी गई हैं और इनका प्रस्तुत प्रकरण में विरोध भी, नहीं झलकता। - चतुविशति जिन-स्तुति मूलम्--(वंदे) उसभं अजियं संभवमभिनंदण-सुमइं सुप्पभं सुपासं । ससि-पुप्फदंत-सीयल . सिज्जंसं वासुपुज्जं च ॥२०॥ विमलमणंतं य धम्म संति कुंथु अरं च मल्लिं च । मुणिसुव्वयं नमि नेमि पासं तह वद्धमाणं च ॥२१॥
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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