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संघ महामन्दर-स्तुति
संघमन्दरगिरि प तु नन्दनं – सन्तोषः, तथाहि तत्र स्थिताः साधवो नंदति, तच्च विविधामषैषध्यादि लब्धसंकुलता मनोहरं तस्य सुरभिः शीलमेवं गन्धः, तेन व्याप्तस्य, अथवा मनोहरत्वं सुरभिशीलगंधविशेषणं द्रष्टव्यम् ।”
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इस कथन से यह सिद्ध होता है कि श्रीसंघसुमेरु सन्तोषरूप नन्दनवन, लब्धिरूप शक्तियों से मनोहर एवं शील की सुगंध से व्याप्त हो रहा है । जीवदया से यह प्राणीमात्र का आवास स्थान बना हुआ है । श्रीसंघ सुमेरु वादियों को पराजित करनेवाले अनगार - सिंहों से व्याप्त है
हे उस धाउ पगलन्त इत्यादि - इसका भाव यह है कि श्रीसंघमेरु पक्ष में अन्वय- व्यक्तिरेक लक्षणवाले सैकड़ों हेतुओं से वादियों की कुयुक्ति तथा असद्वाद का निराकरणरूप विविध उत्तम धातुओं से सुशोभित है । और विचित्र प्रकार के श्रुतज्ञानरूपी रत्नों से वह श्रीसंघमेरु प्रकाशमान है । वह आमर्ष आदि २८ लब्धिरूप औषधियों से व्याप्त रहा है। गुहा शब्द से – धर्मध्याख्यानों से व्याख्यानशालाएं सुन्दरता को प्राप्त
हो रही हैं ।
संवरवर जलपगलिय — इत्यादि गाथा में दिये गये पदों का आशय है - पांच आश्रवों के निरोध को संवर कहते हैं, वह संवर कर्ममल को धोने के लिए विशुद्ध जल है। जिसके सेवन करने से सांसारिक तृष्णाएं सदा के लिए शांत हो जाती हैं। ऐसे विशुद्ध जल के झरने जहां निरन्तर बह रहे हैं । वे भरने मानों श्रीसंघमेरु के गले को सुशोभित करने के लिए हार बने हुए हैं। स्तुतिकार ने - गाथा में – सावगजण पउररवन्तमोरनच्चंत कुइरस्स - यह पद दिया है, वृत्तिकार ने इस पद का आशय निम्नलिखित रूप से व्यक्त किया है—
“श्रावकजना एव स्तुति-स्तोत्र - स्वाध्याय - विधान - मुखरतया प्रचुरा रवन्तो मयूरास्तैनृत्यन्तीव कुहराणि व्याख्यानशालासु यस्य स तथा तस्य ।"
इसका भाव यह है, जैसे मेरु की कन्दराओं में मेघ की गम्भीर गर्जना को सुनकर प्रसन्नचित्त मोर नाच उठते हैं, वैसे ही श्रावक लोग व्याख्यानशालाओं में जिनवाणी के गम्भीर एवं मधुर घोष को सुन कर प्रसन्नचित्त से स्तुति स्तोत्र पाठ जाप, स्वाध्याय करते हुए मस्ती में झूमते हैं, मानो नृत्य की भांति अपने अन्तर्गत प्रसन्न भावों को प्रकट कर रहे हों । न कि मोर की तरह सचमुच नाचते हैं । इस गाथा में उपमा अलंकार से उक्त विषय को प्रकट किया है ।
विनय-नय-पवरमुणिवर - इत्यादि इस पद का अर्थ है – विनयधर्म और विविध नय-सरणि रूप दामिनी की चमचमाहट से श्रीसंघमेरु जगमगा रहा है। शिखर के तुल्य प्रमुख मुनिवर तथा आचार्य आदि समझने चाहिए ।
विविहगुण-कप्परुक्खग-फलभर कुसुमाउलवणस्स - अर्थात् जो मुनिवर मूलोत्तर गुणों से सम्पन्न वे कल्पवृक्ष के तुल्य हैं । क्योंकि वे सुख के हेतु तथा धर्मफल के देने वाले हैं तथा नाना प्रकार के योगजन्य लब्धिरूप सुपारिजात पुष्पों से व्याप्त हैं । गच्छ नन्दनवन के तुल्य हैं। इस प्रकार अपनी अलौकिक कांति से श्रीसंघ सुमेरु देदीप्यमान हो रहा है ।
नाणवर-रयणदिप्पंत इत्यादि - इस गाथा में बताया है कि मेरुपर्वत की चूलिका वैडूर्य रत्नमयी है, जो कि अत्यन्त स्वच्छ एवं निर्मल है, श्रीसंघमेरु की चूलिका भी अत्यन्त स्वच्छ एवं निर्मल सम्यग्ज्ञानआदि रत्नों से सुशोभित हो रही है ।