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नन्दीसूत्रम्
महामेरु गिरि को या उसके दिव्य माहात्म्य को विनय से प्रणत होता हुआ मैं नमस्कार करता हूँ। यहाँ द्वितीया अर्थ में षष्ठी का प्रयोग किया हुआ है।
टीका-इन गाथाओं में स्तुतिकार ने श्रीसंघ को मेरुपर्वत से उपमित किया है। जिसका विस्तृत वर्णन पदार्थ में तथा भावार्थ में लिखा जा चुका है, किन्तु यहां विशिष्ट शब्दों पर ही विचार करना है। जैन साहित्य, वैदिक साहित्य एवं बौद्ध साहित्य में मेरुपर्वत और नन्दनवन का उल्लेख मिलता है । वर्णनशैली यद्यपि निःसंदेह भिन्न-भिन्न है तदपि उनकी महिमा और नामों में कोई अन्तर नहीं है, इस विषय में तीनों परम्पराएं समन्वित हैं । मेरुपर्वत इस जम्बूद्वीप के ठीक मध्यभाग में अवस्थित है जोकि एक हजार योजन गहरा, निन्यानवें हजार योजन ऊंचा है। मूलमें उसका व्यास दस हजार योजन है । उसपर क्रमश: चार वन हैं, जिनके नाम-भद्रशाल, सौमनस, नन्दनवन और पाण्डुकवन हैं। उसमें रजतमय, स्वर्णमय, और विविध रत्नमय ये तीन कण्डक हैं । चालीस योजन की चूलिका है । यह पर्वत विश्व में सब पर्वतों से ऊँचा है, उसमें जो-जो विशेषताएं हैं, अब उनका वर्णन करते हैं- .
मेरुपर्वत की वज्रमय पीठिका है, स्वर्णमय मेखला है, कनकमय अनेक शिलाएं हैं, चमकते हुए उज्ज्वल ऊंचे-ऊंचे कूट हैं, नन्दनवन सब वनों से विलक्षण एवं मनोहारी है, वह अनेक कन्दराओं से सुशोभित है, और कन्दराएं मृगेन्द्रों से आकीर्ण हैं। वह पर्वत विविध प्रकार के धातुओं से परिपूर्ण है, विशिष्ट रत्नों का स्रोत है, विविध औषधियों से व्याप्त है । कुहरों में हर्षान्वित हो मयूर नृत्य करते हैं । केकारव से वे कुहरें गुंजायमान हो रही हैं । ऊंचे-ऊंचे शिखरों पर दामिनी दमक रही है, वनविभाग विविध कल्पवृक्षोंसे सुशोभित हैं जोकि फल और फूलों से अलंकृत हो रहे हैं । सब से ऊपरी भाग में चूलिका है, वह अपनी अनुपम छठा से मानों स्वर्गीय देवताओं को भी अपनी ओर आह्वान कर रही हों, इत्यादि विशेषताओंसे से वह मेरुपर्वत . विराजमान है, उ सके तुल्य अन्य कोई पर्वतु नहीं है।
सम्मदंसण-वरवडर–इत्यादि सम्यग-अविपरीतं दर्शनं दृष्टिरिति सम्यग्दर्शनम् । दृष्टि का सम्यक् होना ही सम्यग् दर्शन कहलाता है अर्थात् तत्त्वार्थ श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं, वही सम्यग्दर्शन श्रीसंघमेरुकी वज्रमय पीठिका है, जोकि मोक्षका प्रथम सोपान है।
धम्मवररयणमण्डिय-इत्यादि श्रीसंघमेरु स्वाख्यात धर्मरत्न से मंडित स्वर्णमेखला से युक्त है। धर्म मूलगुण और उत्तरगुणों में विभाजित है, दोनों प्रकार के धर्मों से श्रीसंघमेरु सुशोभायमान है।
इन्द्रिय और मन दमन रूप नियमों की कनक-शिलाओं से संघ सुमेरु अलंकृत है, विशुद्ध एवं ऊँचे अध्यवसाय ही श्रीसंघमेरु के चमकते हुए ऊँचे कूट हैं, जो कि प्रति समय कर्ममल दूर होने से प्रकाशमान हो रहे हैं। विधिपूर्वक आगमों का अध्ययन, संतोष, शील इत्यादि अपूर्व सौंदर्य और सौरभ्य आदि गुणरूप
नन्दनवन से श्रीसंघमेरु परिवृत हो रहा है, जो कि महामानव और देवों को सदा आनन्दित कर रहा है। · क्योंकि नन्दनवन में रहकर देव भी प्रसन्न होते हैं, जैसे वृत्तिकार लिखते हैं
"नन्दन्ति सुरासुरविद्याधरादयो यत्र तन्नन्दनवनम् । अशोक-सहकारादि पादपवृदम्, नन्दनं च तदनं च नन्दनवनं, लता वितानगतविविध फल-पुष्प-प्रवाल-संकुलतया मनोहरतीति मनोहर, लिहादिभ्य इत्यच प्रत्ययः, नन्दनवनं च तन्मनोहरं च तस्य सुरभिस्वभावो यो गन्धस्तेन उधुमायः, श्रापूर्णः उद्घमायः शब्द श्रापूर्ण पर्यायः, यत् उक्तमभिमान चिन्हेन-“पडिहत्थमुधुमायं अहिरे (य) इयं च जाण पाउणो" तस्य