SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संघ-महामन्दर-स्तुति - भावार्थ-संघमेरु की भूपीठिका सम्यग्दर्शनरूप श्रेष्ठ वज्रमयी है, तत्त्वार्थ-श्रद्धान मोक्ष का प्रथम अंग होने से सम्यग्दर्शन ही आधार-शिला है जो कि दृढ़ है, उसमें शंका आदि दूषणरूप विवरों का अभाव है। जो प्रति समय विशुध्यमान अध्यवसायों से चिरंतन है, तीव्र तत्त्व-विषयक रुचि होने से ठोस है, सम्यगबोध होने से जीव आदि नव तत्त्व षड्द्रव्यों में निमग्न होने से गहरा है। उत्तरगुणरूप रत्न हैं और मूलगुण स्वर्णमेखला है। उत्तरगुण के बिना मूलगुण इतने सुशोभित नहीं होते, अतः उत्तरगुण ही रत्न हैं, उनसे खचित मूलगुणरूप सुवर्णमेखला है, उससे संघमेरु मंडित है । तथा इन्द्रिय और नोइन्द्रिय (मन) दमनरूप समुज्ज्वल कनक शिलातल हैं, उनपर अशुभ अध्यवसायों के परित्याग से प्रतिसमय कर्ममल के धुलने से तथा उत्तरोत्तर सूत्रार्थ के स्मरण करने से उदात्तचित्त ही प्रोन्नत कूट हैं । सन्तोषरूप मनोहर नन्दनवन है जोकि विशुद्ध चारित्र की सुरभिगंध से आपूर्ण (व्याप्त) हो रहा है । __ स्व-पर कल्याणरूप प्राणियों की दया ही सुन्दर कन्दराएं हैं, वे कन्दराएँ कर्मशत्रुओं को पराभव करनेवाले तथा परवादी मृगों पर विजय प्राप्त दुर्धर्ष तेजस्वी मुनिवर सिंहों से आकीर्ण हैं और कुबुद्धि के निरास से सैकड़ों अन्वय-व्यतिरेक हेतुरूप धातुओं से-संघमेरु भास्वर है तथा विशिष्ठ क्षयोपशमजन्य आमर्ष आदि लब्धिरूप चन्द्रकान्त आदि रत्नों से तथा श्रुतरत्नों से जिसकी व्याख्यान शालारूप गुहाएं जाज्वल्यमान हो रही हैं। हिंसा, झूठ, चौर्य, मैथुन और परिग्रह अथवा मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद, अशुभयोग इन्हें आश्रव कहते हैं, आश्रवों का निरोधरूप श्रेष्ठ स्वच्छजल कर्ममल प्रक्षालन करने में समर्थ ऐसे संवरजल के निरन्तर प्रवहमान प्रशम आदि विचारधारा अथवा संवरजल के सातत्य प्रवहमान झरने ही शोभायमान हार हैं। श्रावकजन मयूर मस्ती में झूमते हुए अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इनके गुणग्राम, स्तुति-स्तोत्र, स्वाध्याय आदि मधुर शब्द कर रहे हैं, उन शब्दों से व्याख्यानशालारूप कुहर (लतावितान) मुखरित हो रहे हैं। विनय से नम्र उत्तम मुनिवर चमकते हुए संयम यशःकीर्तिरूप दामिनी से आचार्य उपाध्यायरूप शिखर सुशोभित हो रहे हैं। नाना प्रकार के विनय-संयम-तप गुणों से युक्त मुनिवर ही कल्पवृक्ष हैं, सुख का हेतु धर्मरूप फलों के देनेवाले और नाना प्रकार की ऋद्धिरूप कुसुमों से सम्पन्न ऐसे मुनिवरों से गच्छरूप वन परिव्याप्त हैं । परम सुख का हेतु होने के कारण ज्ञानरूप रत्न ही जिसमें श्रेष्ठरत्न है, वह ज्ञान ही देदीप्यमान, मनोहारी निर्मल वैडूर्यमय चूल (चूलिका) है, उपर्युक्त अतिशयों से समृद्ध संघ
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy