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________________ २० . नदीसूत्रम् संवरवर-जलप्रगलितो, -ज्झर प्रविराजमानहा (घा) रस्य । श्रावकजन प्रचुर विनय-नय- प्रवरमुनिवर, -- स्फुरद्विद्युज्ज्वलच्छिखरस्य । विविध गुणकल्प - वृक्षक - फलभर कुसुमाकुलवनस्य ॥१६॥ - - - ज्ञानवर-रत्नदीप्यमान, कान्तवैडूर्यविमलचूडस्य । वन्दे ! विनय-प्रणतः, संघमहामन्दरगिरिम् ॥१७॥ - रवन्नृत्यन्मयूरकुह्रस्य ।।१५।। पदार्थ – सम्म सण - वरवर - दढ रूढ गाढ श्रवगाढ- पेढस्स - जैसे मेरुगिरि श्रेष्ठ वज्रमय-निष्प्रकम्पचिरन्तन - ठोस गहरे भूपीठ [ आधारशिला] वाला है, वैसे ही श्रीसंघ का आधार भी उत्तम सम्यग्दर्शन है, धम्मवररयण-मंडिय - चामीयर - मेह लागस्स – जिस तरह मेरुपर्वत उत्तम उत्तम रत्नों से युक्त स्वर्ण मेखला से मण्डित है, वैसे ही संघमेरु की मूलगुणरूप धर्म की स्वर्णिम मेखला भी उत्तरगुण रूप रत्नों से मण्ड है। नियमूसिय कणय - सिलायलुज्जलजलंतचित्त कूडस्स - संघमेरु के इन्द्रिय, नोइन्द्रिय दमन रूप नियम ही कनक शिलातल हैं, उनपर उज्ज्वल, चमकीले उदात्त चित्त ही प्रोन्नत कूट हैं, - नंदणवरण मणहरसुरभिसीलगंधुद्ध मायस्स – उस संघमेरु का सन्तोष रूप मनोहर नन्दनवन शीलरूप सुरभि गन्ध से परिव्याप्त है । जीवदया सुन्दर कंदरुद्दरियमुवि रमईदइन्नस्स - संघमेरु में जीवदया ही सुन्दर कन्दराएँ हैं, वे कर्मशत्रुओं को परास्त करने वाले अथवा अन्ययूथिक मृगों को पराजित करनेवाले, ऐसे दुर्धर्षं तेजस्वी मुनिवर सिंहों से आकीर्ण हैं । हेउसयधाउ पगलंतरय खदित्तोस हिगुहस्स - संघमेरु में शतशः अन्वयव्यतिरेक हेतु ही उत्तम उत्तम निष्यन्दमान धातुएं हैं और उसकी व्याख्यानशाला रूप गुफाओं में विशिष्ट क्षयोपशमभाव से कर रहे श्रुतरत्न तथा आमर्श आदि औषधियाँ ही जाज्वल्यमान रत्न हैं । संवरवरजलपगलियउज्झरप्पविरायमाणहारस्स—संघमेरु में आश्रवों का निरोध ही श्रेष्ठजल है और संवर की सातत्य प्रवहमान प्रशम आदि विचारधारा अथवा संवर-जल का निर्भर प्रवाह ही शोभायमान हार है | सावगजण पउररवंतमोरनच्चंतकुहरस्स उस संघमेरु के धर्मस्थानरूप कुहर प्रचुर आनन्द विभोर श्रावक जन मयूरों के परमेष्ठी की स्तुति व स्वाध्याय के मधुर शब्दों से गुञ्जायमान हैं । विनय-पवरमुणिवर फुरं तविज्जुज्जलं तसिहरस्स - विनय से विनम्र या विनय और नयमें प्रवीण प्रवर मुनिवर तथा संयम यशः कीर्तिरूप दामिनी की चमक से संघमेरु के आचार्य - उपाध्याय रूप शिखर सुशोभित हो रहे हैं । विहि गुणकप्प - रुक्खग- फलभर - कुसुमाउलवणस्स - संघमेरु में विविध मूलगुण तथा उत्तरगुण सम्पन्न मुनिवर ही कल्पवृक्ष हैं, वे धर्मरूप फलों से लदे हुए हैं और ऋद्धि-रूप पुष्पों से सम्पन्न, ऐसे मुनियों से गच्छरूप वन व्याप्त है । 1 नाणवररयण - दिप्पंत कंतवे रुलिय-विमलचूलस्स - सम्यग्ज्ञानरूप श्रेष्ठरत्न ही, देदीप्यमान मनोहर विमल वैडूर्यमयी चूलिका है । वंदामि विणयपणश्र संघ - महामंदर - गिरिस्स - उस चतुर्विध संघरूप महामन्दर गिरि के माहात्म्य को विनय से प्रणत मैं (देववाचक) वन्दन करता हूँ ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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