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संघ-महामन्दर-स्तुति
है कि श्रीसंघ में श्रद्धा-भक्ति-विनय करने से भगवदाज्ञा का पालन होता है। श्रीसंघ की आशातना, भगवान की आशासनर है और श्रीसंघ की सेवा-भक्ति करना भगवान की सेवा है। श्रीसंघ की हीलनानिन्दना तथा अवर्णवाद करने से अनन्त संसार की वृद्धि होती है और दर्शन-मोह का बंध होता है।' अतः श्रीसंघ का आदर-सत्कार भगवान की तरह ही करना चाहिये ।
संघ-महामन्दर-स्तुति मूलम्-सम्मइंसण-वरवइर, - दढ-रूढ-गाढावगाढपेढस्स।
धम्म-वररयणमंडिय, - चामीयरमेहलागस्स ।।१२।। नियमूसियकणय, -- सिलायलुज्जलजलंतचित्तकूडस्स । नंदणवण-मणहर-सुरभि, - सील-गंधुद्धमायस्स ॥१३॥ जीवदया-सुन्दर-कंदरुद्दरिय, – मुणिवर-मइंदइन्नस्स। हेउसय-धाउ-पगलंत, -, रयणदित्तोसहिगुहस्स ॥१४॥ संवरवर-जलपगलिय,- उज्झर-प्पविरायमाणहारस्स । सावगजण-पउररवंत, - मोर-नच्चंतकुहरस्स ।।१।। विणय-नय-पवरमुणिवर,-फुरंत-विज्जुज्जलंतसिहरस्स ।। विविह-गुण-कप्परुक्खग, - फलभर-कुसुमाउलवणस्स ॥१६॥ नाणवर-रयणदिप्पंत, - कंत-वेरुलिय-विमलचूलस्स ।
वंदामि विणय-पणो, संघ-महामंदरगिरिस्स ।।१७।। छाया-सम्यग्दर्शनवर - वज्र-दृढ-रूढ - गाढावगाढपीठस्य ।
'धर्म-वररत्नमण्डित, चामीकर मेखलाकस्य ।।१२।। . नियमकनक - शिलातलो - छितोज्ज्वलज्वलच्चित्रकूटस्य । नन्दनवन-मनोहर-सुरभि - शील-गन्धोद्धमायस्य ।।१३।। जीवदया-सुन्दर-कन्दरोदृप्त, मुनिवरमृगेन्द्राकीर्णस्य । हेतुशत - धातु - प्रगलद्,-रत्नदीप्तौषधिगुहस्य ॥१४॥
१. केवलि-श्रुत-संघ-धर्म-देवावर्णवादो दर्शनमोहरय !-तत्त्वार्थ सूत्र अ० ६ सू० १४ ।
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