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संघचन्द्र-स्तुति
पप में सौन्दर्य, सौरभ्य, अलिप्तता, और मकरन्द ये विशिष्टगुण पाए जाते हैं। श्रीसंघ-पद्म में मूलगुण, उत्तरगुण, अनासक्ति, आध्यात्मिकरस, जिनवाणी के श्रवण-मनन-चिन्तन अनुप्रेक्षा, निदिध्यासनजन्य आनन्द, ये विशिष्टगुण हैं। इस प्रकार संघ-पद्मवर विश्व में अनुपम है। जिसकी सुगन्ध तीन लोक में व्याप्त है।
संघचन्द्र-स्तुति मूलम्-तवसंजम-मयलंछण ! अकिरियराहुमुहदुद्धरिस ! निच्च ।
.. जय .संघचन्द ! निम्मल-सम्मत्तविसुद्धजोण्डागा ! ॥६॥ छाया-तपःसंयममृगलाञ्छन ! अक्रियराहुमुखदुधृष्य ! नित्यम् ।
जय संघचन्द्र ! निर्मल-पम्यक्त्व-विशुद्ध ज्योत्स्नाक ! ॥६॥ पदार्थ-तवसंजम-मयलंछण-जिसके तप-संयम ही मृगचिह्न हैं, अकिरियराहुमुहदुद्धरिसअक्रियावाद अर्थात् नास्तिकवाद रूप राहुमुख से सदैव दुर्द्धर्ष है, निम्मल सम्मत्त विसुद्धजोण्हागा-निर्मल सम्यक्त्व रूप स्वच्छ चाँदनी वाले, संघचन्द-हे संघचन्द्र ! निच्चं जय-सर्वकाल अतिशयवान हो।
भावार्थ-हे तप-प्रधान संयम रूप मृगलांछन वाले ! जिन-प्रवचन चंद्र को ग्रसने में परायण अक्रियावादी ऐसे राहुमुख से सदा दुष्प्रधृष्य ! निरतिचार सम्यक्त्व रूप स्वच्छ चांदनी वाले हे संघचन्द्र ! आप सदा जय को प्राप्त हों अर्थात् अन्यदर्शनियों से अतिशयवान हो । संघ-चन्द्र कलंक-पंक से रहित है जिस पर कभी ग्रहण नहीं लगता।
टीका--इस गाथा में श्रीसंघ को चन्द्र की उपमा से अलंकृत किया गया है, जैसे कि
तवसंजम-मयलंछण-जैसे चन्द्र मृगचिह्न से अङ्कित है, वैसे ही श्रीसंघ भी तप-संजम से अङ्कित है। जैसे चन्द्र तीन काल में भी उस मृगचिह्न से अलग नहीं हो सकता, वैसे ही श्रीसंघ भी तप-संयम से कदाचिद् भी पृथक् नहीं हो सकता।
अकिरिय-राहुमुहदुद्धरिस-इस पद से यह ध्वनित होता है-इस श्रीसंघ-चन्द्र को नास्तिक, चार्वाक, मिथ्यादृष्टि, एकान्तवादियों का राहु कदाचिदपि ग्रस नहीं सकता। बादल, कुहरा तथा आँधी, ये सब किसी भी प्रकार से मलिन नहीं कर सकते । अतः यह संघचन्द्र गगनचन्द्र से विशिष्ट महत्व रखता है।
निम्मल-सम्मत्त-विसुद्ध जोरहागा-श्रीसंघचन्द्र, मिथ्यात्व-मल से रहित, स्वच्छ, निर्मल सम्यक्त्वरूपी चांदनी वाला है, जिसकी ज्योत्स्ना दिगदिगन्तर में व्याप्त है, जोकि अविवेकी, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि चोरों को अच्छी नहीं लगती। इसलिए हे निर्मल सम्यक्त्व-ज्योत्स्नायुक्त चन्द्र ! आपकी सदा जयविजय हो।