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नन्दीसूत्रम्
जिस की दृढ़ कणिकाएँ हैं । उत्तरगुण ही जिस के पराग हैं, श्रावकजन-भ्रमरों से जो सेवित तथा घिरा हुआ है। तीर्थंकरसूर्य के केवलज्ञान के तेज से विकास पाए हुए और श्रमण गण रूप हजार पंखुड़ी वाले उस संघपद्म का सदा कल्याण हो ।
टीका-उक्त दोनों गाथाओं में श्रीसंघ को पद्मवर से उपमित किया है। पद्मवर सरोवर की शोभा बढ़ाने वाला होता है, श्रीसंघ भी मनुष्यलोक की शोभा बढ़ाता है । पद्मवर दीर्घनाल वाला होता है, श्रीसंघ श्रुतरत्न दीर्घनाल युक्त है । पद्म स्थिरकणिका वाला होता है तो श्रीसंघ पद्म भी पञ्चमहाव्रत रूप स्थिर कणिका वाला है। पद्म सौरभ्य, पीतपराग तथा मकरन्द के कारण भ्रमर समूह से सेव्य होता है, श्रीसंघ पद्म-मूलगुण सौरभ्य से, उत्तरगुण-पीतपराग से, आध्यात्मिक रस एवं धर्मप्रवचनजन्य आनन्दरस रूप मकरन्द से युक्त है । वह श्रावक भ्रमरों से परिवृत्त रहता है, विशिष्ट मुनिपुंगवों के मुखारविन्द से धर्म प्रवचनरूप मकरन्द का आकण्ठ पान करके आनन्द विभोर हो श्रावक-मधुकर के स्तुति के रूप में गुंजार कर रहे हैं।
पद्म सूर्योदय के निमित्त से विकसित होता है तथा श्रीसंघपद्म तीर्थंकर-सूर्य भगवान् के निमित्त से पूर्णतया विकसित होता है। पद्म जल एवं कर्दम से सदा अलिप्त रहता है, श्रीसंघ पद्म-अनिष्टकर्मरज तथा काम-भोगों से अलिप्त, संसार जलौघ से बाहिर उत्तमगुणस्थानों में रहता है। पद्मवर सहस्र पत्रों वाला होता है, श्रीसंघ पद्म श्रमणगण रूप सहस्र पत्रों से सुशोभित है। इत्यादि गुणोपेत श्रीसंघ-पद्म का कल्याण हो । गुणकेसरालस्स-इस पद में 'मतुप्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'आल' प्रत्यय ग्रहण किया गया है, कहा भी है—मतुवस्थम्मि मुणिज्जइ पालं इल्लं मणं तह य-आचार्य हेमचन्द्र कृत प्राकृतव्याकरण में प्राल्विल्लोल्लालवन्त मन्तेत्तरमणा मतोः, मा। १५६ । इस सूत्र से आल प्रत्यय जोड़ देने से 'गुणकेसराल' शब्द बनता है।
श्रावक किसे कहते हैं ? जो प्रतिदिन श्रमण निर्ग्रन्थों के दर्शन करता है और उनके मुखारविन्द से श्रद्धापूर्वक जिनवाणी को सुनता है, उसे 'श्रावक कहते हैं, जैसे कि कहा भी है
"संपत्त दंसणाइ पइदिवहं, जइजण सुणेइ य।
समायारि परमं जो, खलु तं सावगं विन्ति ॥" . जिणसूरतेयबुद्धस्स-वृत्तिकार ने इस पद की व्याख्या निम्नलिखित की है-जिन एव सकल जगत्प्रकाशकतया सूर्य इव भास्कर इव जिनसूर्यस्तस्य तेजो संवेदनप्रभवा धर्मदेशना तेन बुद्धस्य ।
गाथा में श्रमण शब्द आया है जिस का अर्थ होता है, श्राम्यन्तीति श्रमणा नन्यादिभ्योऽनः ॥३॥८६॥ इस सूत्र से कर्ता में अनप्रत्यय हुआ। जिस दिन से साधक मोक्षमार्ग का पथिक होने के लिए दीक्षित होता है, उसी क्षण से लेकर पूर्णतया सावध योग से निवृत्ति पाकर जो अपना जीवन संयम और तप से यापन करता है, जिसका जीवन समाज के लिए भाररूप नहीं है, जो बाह्य और आन्तरिक तप में अपने आपको सन्तुलित रखता है। 'ज़र ज़ोरू जमीन' के त्याग के साथ-साथ विषय-कषायों से भी अपने को पृथक् रखता है वह 'श्रमण' कहलाता है, जैसे कि कहा भी है
“यः समः सर्वभूतेषु, सेषु स्थावरेषु च। तपश्चरति शुद्धात्मा श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः ॥"