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________________ नन्दीसूत्रम् इस गाथा में 'जय' और 'निच्चं' ये दो पद विशेष महत्व रखते हैं। जैसे चन्द्रमा असंख्य ग्रह, नक्षत्र और तारों में सदाकाल ही अतिशायी एवं जयवन्त होता है, वैसे ही श्रीसंघ चाँद भी अन्य यूथिकों से सदैव अपना विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण अस्तित्व रखता है। अतएव जयवन्त है। जैसे चन्द्र सदैव सौम्य रहता है, वैसे ही श्रीसंघ भी सदा-सर्वदा सौम्य है। इसी कारण जयवन्त है। चन्द्र सौम्य-गुणयुक्त है और उसका विमान मृगचिह्न से अंकित है, इसका उल्लेख आगम में निम्नलिखित है-“से केपट्टेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ चन्दे ससी ससी ? गोयमा ! चन्दस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो मियंके विमाणे, कंता देवा, कंताओ देवीओ, कंताई भासण-सयण-खंभ-भण्ड-मत्तोवगरणाई, अप्पणो वि य णं चंदे जोइसिंदे जोइसराया सोमे, कंते, सुभगे, पियदसणे, सुरूवे, से तेणठेणं जाव ससी।" सूत्र ४-५४, व्या०प्र० श०१२, उ०६ । इस पाठ का यह भाव है कि चन्द्र का विमान मृगांक से अंकित है और चन्द्र उस विमान में रहने वाले देव हैं तथा देवियां सौम्य, कान्त, सुभग, प्रियदर्शन, सुरूप इत्यादि गुणयुक्त होने से चन्द्र को स-श्री होने से शशी कहा जाता है। 'चन्द्र' सौम्यगुण, स्वच्छज्योत्स्ना, नित्यगतिशील इत्यादि अनेक गुणयुक्त होने से श्रीसंघ को भी चन्द्र से उपमित किया है। श संघसूर्य-स्तुति मूलम्-परतित्थियगहपहनासगस्स, तवतेयदित्तलेसस्स । नाणुज्जोयस्स जए, भदं दमसंघसूरस्स ॥१०॥ छाया–परतीथिक-ग्रहनभानाशकस्य, तपस्तेजोदीप्तलेश्यस्य। ज्ञानोद्योतस्य जगति, भद्रं दमसंघसूरस्य ॥१०॥ पदार्थ-परतित्थियगहपहनासगस्स-एकान्तवाद को ग्रहण किए हुए परवादी ग्रहों की प्रभा को नष्प करने वाला, तवतेयदित्तलेसस्स-तप-तेज से जो देदीप्यमान है, नाणुज्जोयस्स-जो सदा सम्यग्ज्ञान का प्रकाशक है, दमसंघसूरस्स-ऐसे उपशम प्रधान संघसूर्य का, जए भ६-जगत् में कल्याण हो। भावार्थ-एकान्तवाद, दुर्नय का आश्रय लेने वाले परवादी रूप ग्रहों की प्रभा को नष्ट करनेवाला, तप-तेज से जो सदा देदीप्यमान है, सम्यग्ज्ञान का ही सदा प्रकाश करने वाला है, इन विशेषणों से युक्त उपशमप्रधान संघसूर्य का विश्व में कल्याण हो । - १. से केण?ण' मित्यादि मियंके त्ति मृगचिह्नत्वात् मृगांके विमानेऽधिकरणभूते सोमे नि सौम्य अरौद्राकारो नीरोगो वा, कन्ते त्ति कान्तियोगात्, सुभए सुभगः-सौभाग्ययुक्तत्वाद् वल्लभो जनस्य, पियसणे त्ति प्रेमकारिदर्शनः कस्मादेवं ? अत आह सुरूपः से तेणठे मित्यादि । अथ तेन कारणेनोच्यते, ससी त्ति सहश्रिया इति सश्रीः तदीय देव्यादीनां स्वस्य च कान्त्यादि युक्तादिति, प्राकृतभाषापेक्षया च ससी त्ति सिद्धम् ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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