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________________ नन्दीसूत्रम् संघरथ-स्तुति मूलम्-भदं सीलपडागूसियस्स, तवनियमतुरयजुत्तस्स। संघरहस्स भगवो, सज्झायसुनंदिघोसस्स ॥६॥ छाया-भद्रं शीलपताकोच्छूितस्य, तपनियमतुरगयुक्तस्य । संघरथस्य भगवतः, . स्वाध्याय सुनन्दिघोषस्य ॥६॥ पदार्थ–'सोल-पडागूसियस्स'—अट्ठारह हजार शीलांगरूप. पताकाएं जिस पर फहरा रही हैं, , 'तवनियम-तुरयजुत्तस्स'-तप और नियम-संयम जिसमें घोड़े जुते हुए हैं, सज्झाय, सुनंदिघोसस्स-तथा वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षर और धर्मकथा पांच प्रकार का स्वाध्याय ही जिसका श्रुतिसुख मंगलघोष है, इस प्रकार के संघरथ भगवान् का, भई-भद्र-कल्याण हो । भावार्थ-अट्ठारह हजार शीलांग रूप पताकाएं जिस पर फरफरा रही हैं, जिसमें संयमतपरूप सुन्दर अश्व जुते हुए हैं, जिसमें से पांच प्रकार के स्वाध्याय का मंगलमय मधुरघोष (ध्वनि) निकल रहा है। इसाप्रकार के संघरथ रूप भगवान का कल्याण हो। यहां संघ को मार्गगामी होने के कारण रथ से उपमित किया है । जो संघ सुसज्जित रथ की तरह मार्गगामी हो, उसे संघरथ कहते हैं। टीका-इस गाथा में श्रीसंघ को रथ से उपमित किया गया है। जैसे एक सर्वोत्तम रथ है, उसमें उत्तम जाति के घोड़े जोते हुए हैं। वैसे ही संघरथ सर्वोत्तम रथ है, जिसमें तप और नियम के घोड़े जोते हुए हैं । जिस के शिखर पर अष्टादश सहस्र शीलाङ्ग ध्वजा और पताकाएं फरफरा रही हैं। जिस प्रकार रथ में १२ प्रकार के तूरी आदि के नन्दिघोष मांगलिक बाजे बजते रहते हैं। उसी प्रकार संघरथ में भी वाचना, पृच्छना, परावर्तना, धर्मकथा, अनुप्रेक्षा रूप स्वाध्याय के मङ्गल नन्दिघोष बाजे बज रहे हैं, उन्हें सुन कर मन आनन्द-विभोर हो जाता है, ऐसे संघरथ भगवान् का कल्याण हो। इस गाथा में सीलपडागूसियस्स की छाया बनती है-शीलोच्छितपताकस्य-इस पद में उच्छित शब्द पर-निपात प्राकृतशैली से हुआ है। क्योंकि प्राकृत भाषा में विशेषण पूर्वापर निपात का नियम नहीं है। जैसे कि कहा भी हैनहि प्राकते विशेषणपर्वापर-निपातनियमोऽस्ति. यथा कथंचित् पूर्वर्षि प्रणीतेषु वाक्येषु विशेषण-निपात दर्शनात् ।' तथा किसी-किसी प्रति में 'सज्झायसुनेमिघोसस्स' इस प्रकार का भी पाठ है। इस का भाव यह है कि स्वाध्याय ही सुन्दर नेमिघोष है। तवनियमतुरयजुत्तस्स इस पद का भाव यह है-शीलाङ्गरथ के कथन से ही तप-नियम ये दोनों गुण आ जाते हैं । किन्तु फिर भी तप और नियम की प्रधानता बतलाने के लिए ही इन का पृथक् कथन किया है। क्योंकि सामान्य कथन करने पर भी प्रधानता दिखाने के लिए विशेष कथन किया जाता है, जैसे किसी ने कहा-'ब्राह्मण आ गए हैं, इससे सिद्ध हुआ कि अन्य लोग भी आ गए हैं। "यथा ब्राह्मणा प्रायाता वशिष्टोऽप्यायातः”। गर
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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