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श्रीसंघचक्र-स्तुति
अनशन, अवमौदर्य्य, वृत्तिसंक्षेप, रस-परित्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य (सेवा) स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग, इस प्रकार १२ भेदों सहित बारह प्रकार का तप होता है।
इन में छः भेद बाह्य तप के हैं और अन्तिम छः भेद आभ्यन्तर तप के हैं। श्रीसंघ-चक्र में तुम्ब के तुल्य संयम है । आरक के तुल्य बारह प्रकार का तप है । सम्यक्त्व स्थानीय परिकर है।
सम्मत्तपारियल्लरस-इस पद से यह सिद्ध किया गया है कि सम्यक्त्व ही चक्र का उपरिभाग है। सम्यक्त्व, तप और संयम ये तीनों श्रीसंघ चक्र के असाधारण अंग हैं, जिन के बिना श्रीसंघचक्र नहीं कहलाता है।
अपडिचक्कस्स-श्रीसंघ अप्रतिम चक्र है, इसके समान अन्य कोई चक्र नहीं है। इसी कारण संघचक्र सदा जयशील होने से नमस्करणीय है। इस गाथा में चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग किया गया है। क्योंकि प्राकृत भाषा में चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी होती है, जैसे कि-"संजमतुम्बारयस्स नमो सम्मत्त. पारियल्लस्स"-कहा भी है --'छट्टि विहत्तीए भएणइ चउत्थी'-इस नियम के अनुसार नम: के योग में चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी की है । 'पारियल्ल' शब्द देशी प्राकृत का परिकर अर्थ में आया हुआ है । गाथा में जो अपडिचक्कस्स पदे दिया है, इसका आशय यह है कि जैसा चतुर्विध श्रीसंघ अपने आध्यात्मिक वैभव से अनुपम है, वैसा अन्ययूथिक चरकादि वादियों का संघ नहीं है। इसके विषय में वृत्तिकार के निम्नलिखित शब्द हैं—न विद्यते प्रति-अनुरूपं समानं चक्रं यस्य तदप्रतिचक्रं चरकादिचक्ररसमानमित्यर्थः' । इसका भाव यह है--जिस प्रकार संयम तुम्ब और तपरूप आरक तथा सम्यक्त्वरूप चक्र का उपरि भाग परिकर है, इस प्रकार का चक्र अन्य दर्शनों में नहीं पाया जाता है। जिस चक्र के असाधारण अंग संयम, तप और सम्यक्त्व हों, वह तो स्वतः ही अप्रतिम होता है :
सम्मत्त-शब्द से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का ग्रहण किया गया है । संयम और तप से सम्यकचारित्र का ग्रहण होता है। श्रीसंघचक्र इस प्रकार रत्नत्रय से निमित होने के कारण विश्ववन्द्य और जयशील है। यह संघचक्र आत्मा का मोक्ष-मार्ग प्रदर्शक है, त्रिलोकीनाथ बनाने वाला है और अज्ञान, अविद्या, मिथ्यात्व तथा मोह इन सबका सदा के लिए विनाश करने वाला है।
चक्र इव संघ इति संघचक्रः-जो संघ, चक्र के तुल्य हो, उसे संघचक्र कहते हैं। इसे भावचक्र भी कहते हैं । जिन्होंने कर्मों पर विजय प्राप्त की है, वह इसी चक्र से ही की है।
अनशनमूनोदरता वृत्तेः संक्षेपणं रसत्यागः । कायक्लेशः संलीनतेति बाह्य तपः प्रोक्तम् ।।१।। प्रायश्चित्त-ध्याने वैयावृत्य-विनयावथोत्सर्गः । स्वाध्याय इति तपः षट् प्रकारमाभ्यन्तरं भवति ।।२।।