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________________ १० नदीसूत्रम् संघचक्र-स्तुति मूलम् - संजम-तव- तुंबारयस्स, नमो सम्मत्तपारियलस्स । चिक्स जो होउ सया संघचक्कस्स ||५|| , छाया - संयम - तपस्तुम्बारकाय, नमः सम्यक्त्वपारियल्लाय । अप्रतिचक्रस्य जयो भवतु, सदा संघस्य ||५|| पदार्थ – संजम-तव- तुंबारयस्स - संयम ही तुम्ब— नाभि है, छः प्रकार बाह्य तप और छः प्रकार आभ्यन्तर, इस प्रकार तप के बारह भेद ही जिस में चारों ओर लगे हुए १२ आरे हैं, सम्मत्तपारियहलस्ससम्यक्त्व ही जिसका बाह्य परिकर है अर्थात् परिधि है, नमो ऐसे भावचक्र को नमस्कार हो, अपडिचक्करस-जिस के सदृश विश्व में अन्य कोई चक्र नहीं है अर्थात् अद्वितीय है, ऐसे संघचक्कस्स संधचक्र की सया जो होउ - सर्वकाल जय हो, वह अन्य किसी संघ से जीता नहीं जा सकता । अतः वह सदा सर्वदा जयशील है, इसी कारण से वह नमस्करणीय है । भावार्थ - उत्तरह प्रकार का संयम ही जिस संघचक्र का तुम्ब-नाभि है और बाह्यआभ्यन्तर तप ही बारह आरक हैं, तथा सम्यक्त्व ही जिस चक्र का घेरा - परिधि है, ऐसे भावचक्र को नमस्कार हो, जिसके तुल्य अन्य कोई चक्र नहीं है, उस संघ - चक्र की सदा जय हो । यह संघ-चक्र या भावचक्र संसार-भव तथा कर्मों का सर्वथा उच्छेद करने वाला है । टीका - इस गाथा में स्तुतिकार ने श्रीसंघ को चक्र की उपमा से उपमित किया है और साथ ही. चक्र निर्माण की सूचना भी दी गई है । चक्र का तुम्ब - मध्यभाग चारों ओर आरों से युक्त होता है, और साथ ही वह परिकर से भी युक्त होता है । चक्र की उपयोगिता सभी मशीनरियों का आद्य कारण चक्र है। ऐसी कोई मशीनरी नहीं है जोकि चक्रविहीन हो । चक्र वैज्ञानिक साधनों का मूल कारण है। दुश्मनों का नाश करने वाला भी प्राचीन युग में सब से बड़ा अस्त्र चक्र था जोकि अर्धचक्री के पास होता है । इसी से वासुदेव प्रतिवासुदेव को मारता है । चक्र ही चक्रवर्ती का दिग्विजय करते समय मार्गप्रदर्शन करता है, और जब तक छः खण्ड स्वाधीन न हो जाएं तब तक वह चक्र आयुधशाला में प्रवेश नहीं करता, क्योंकि वह देवाधिष्ठित होता है । वह सुदर्शन चक्ररत्न जिसके अधीन में होता है, उसके राज्य में इति-भीति आदि उपद्रव नहीं होते । प्रजा शान्ति एवं चैन से जीवन यापन करती है । इत्यादि अनेक गुणों से चक्र संपन्न होता है । यह है उसकी विलक्षणता । ठीक इसी प्रकार श्रीसंघ चक्र भी अपने असाधारण कारणों से अलौकिक ही है । पाँच आस्रवों से निवृत्ति, पांच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषायों का जय, और दण्डत्रय से विरति इनके समुदाय को संयम कहते हैं ।' १. पंचाश्रवाद्विरमणं पंचेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रय विरतिश्चेति संयमः सप्तदश मेदः ||१|
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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