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संघनगर-स्तुति
रहते हैं और रक्षा का पूर्णतया प्रबन्ध होता है। भवन नाना प्रकार के मणिरत्नों से भरे हए होते हैं।
और वे उद्यानों से सुशोभित होते हैं । नगर के चारों ओर प्रकोटा होता है। आने-जाने के लिए चारों दिशाओं में चार महाद्वार होते हैं। नगर, व्यापार का केन्द्र होता है। नगर में चारों वर्गों के लोग सुखपूर्वक रहते हैं, जो कि न्याय नीतिमान राजा के शासन से शासित होता है। जिस में अमीर-गरीब सब तरह के व्यक्ति रहते हैं, किन्तु उस में आततायियों का निवास नहीं हो सकता। नगर में लोग आनन्दपूर्वक जीवन यापन करते हैं, इत्यादि विशेषणों से विशिष्ट वह नगर सदा सुख-प्रद होता है। यहां नगर उपमान है और संघ उपमेय है। "
ऐसे ही संघनगर में भी उत्तरगुण रूप प्रचुर तथा विशाल गहन भवन हैं । उत्तरगुण में आहार की विशुद्धि, पांच समितिएं, बारह भावनाएं, बारह प्रकार का तप, बारह भिक्षु की प्रतिमाएं, अभिग्रह आदि ग्रहण किए जाते हैं, जैसे कि कहा भी है
"पिण्डस्स जा विसोही समिइओ भावणा तवो दुविहो। .
पडिमा अभिग्गहावि य उत्तरगुणा इय विजाणाहि ॥" 1. अतः संघनगर उत्तरगुण रूप गहन भवनों से सुशोभित है। वे भवन श्रुतरत्नों से भरे हुए हैं। श्रुतरत्न निरुपम सुख के हेतु हैं । संघनगर मैं विशुद्ध दर्शन रूप गली एवं बाजार हैं। विशुद्ध दर्शन में प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य, ये लक्षण पाए जाते हैं ।
सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का होता है-क्षायिक,, क्षायोपशमिक और औपशमिक । दर्शनमोहनीय ३ और अनन्तानुबन्धीकषाय चतुष्क, इन सोत प्रकृतियों के क्षय करने से क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। इन सात प्रकृतियों में प्रबल प्रकृतियों को क्षय करने से और शेष प्रकृतियों को उपशम करने से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। और सातों प्रकृतियों को उपशम करने से औपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। अतः संघनगर की गलियां मिथ्यात्व, कषाय आदि कचवर से रहित हैं। जहां चातुर्वर्णरूप चार तीर्थ रहते हैं। संघनगर अखण्ड मूलगुण चारित्र से प्रकोटे की तरह वेष्टित है। जो कि काम, क्रोध, मद, लोभ आदि डाकू चोरों से सुरक्षित है, जिस पर ३६ गुणोपेत आचार्य प्रवर का शान्तिपूर्ण शासन है और जिसमें सभी प्रकार के कुल एवं जाति के साधु-साध्वी, श्रावक तथा श्राविकाएं रहती हैं तथा जिसमें रहने के लिए देवता लोग भी आशा लगाए बैठे हैं। जो कि विशुद्ध जीवन रूपी उद्यान से सुशोभित है, तथा जिसमें मैत्री, प्रमोद, करुणा, मध्यस्थता ये चार द्वार हैं। इस प्रकार समृद्ध संघनगर को सम्बोधित करते हुए स्तुतिकार कह रहे हैं
हे संघनगर ! है गुणभवन गहन ! हे श्रतरत्नभृत ! हे दर्शन विशुद्धरथ्याक ! हे अखण्डचारित्रप्राकार ! तेरा भद्र अर्थात् तेरा कल्याण हो !! यहाँ स्तुतिकार ने संघ के प्रति उत्कट विनय प्रदर्शित किया है। इस से यह सिद्ध होता है कि उन स्तुतिकार के मन में संघ के प्रति कितनी सहानुभूति, वात्सल्य, श्रद्धा और भक्ति थी। यही मार्ग हमारा है, 'महाजनो येन गतः स पंथाः ।'