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महावीर-स्तुति
टीका-प्रस्तुत गाथा में सर्वप्रथम ज्ञान अतिशय का वर्णन किया है, जैसे कि सर्वजगत् के उद्योत करने वाले अर्थात केवल ज्ञानालोक से लोकालोक को प्रकाशित करने वाले श्रीभगवान का कल्याण हो।
सव्वजंगुज्जोयगस्स-इस पद से भगवान् की सर्वज्ञता सिद्ध की गई है। जिनकी मान्यता है, 'जीव सर्वज्ञ नहीं हो सकता' इसका स्पष्ट रूप से निराकरण किया गया है।
___ भद्र का अर्थ कल्याण होता है । स्तुतिकार का आशय यह नहीं है कि वे भगवान को आशीर्वाद के रूप में कह रहे हों कि आपका कल्याण हो, बल्कि उनका आशय यह है कि भगवान् में मुख्यतया चार अतिशय होते हैं, प्रत्येक अतिशय कल्याणप्रद ही होता है । ज्ञानातिशय वाले का कल्याण अवश्यंभावी है।
भद्द जिणस्स वीरस्स-काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, रागद्वेष आदि शत्रुओं पर जिसने पूर्णतया विजय प्राप्त कर ली, उसे जिन कहते हैं। इस से अपाय-अपगम अतिशय का लाभ हआ, इस से भी कल्याण का होना अनिवार्य है।
भई सुरासरनमंसियस्स-इस पद से पूजातिशय का वर्णन किया गया है, क्योंकि श्रीतीर्थंकर भगवान् ही अष्ट महाप्रातिहार्य लक्षण रूप पूजा के योग्य होते हैं । वे अष्ट महाप्रातिहार्य ये हैं---
"अशोक-वृक्षः, सुरपुष्पवृष्टिः दिव्यो ध्वनिश्चामरमासनं च ।
भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥१॥" घातिकर्मों के विलय करने से अपायापगमातिशय, तत्पश्चात् कैवल्य प्राप्त हुआ है, इससे ज्ञानातिशय का लाभ हुआ, तदनु धर्मोपदेश दिया और सत्य सिद्धान्त स्थापित किया, इससे वागतिशय का लाभ हुआ, तदनन्तर देवेन्द्र, असुरेन्द्र तथा नरेन्द्रों के पूज्य बने हैं, इससे भगवान् पूजातिशायी बने ।
भद्द धूयरयस्स--इस विशेषण के द्वारा कर्मरज से पृथक् होना सिद्ध किया गया है, अर्थात् महावीर का कर्मरज से रहित होने पर ही कल्याण हुआ है।
केवल ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति कर्मरज से रहित होने पर ही होती है। क्योंकि कर्मरज ही जीव को संसार में जन्म, जरा-मरण करवाता है। जब जीव निर्वाण-पद की प्राप्ति कर लेता है, तब वह 'योग' स्पन्दन-क्रिया के अभाव से अबन्धक दशा को प्राप्त होता है। जब तक जीव स्पन्दन-क्रिया युक्त है, तब तक अंबन्धक नहीं हो सकता, जैसे कि आगमों में कहा है-"जाव णं एस जीवे एयइ, वेयइ, चलइ, . फन्दइ, घट्टइ, खुम्भइ, उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ, ताव णं अहविहबन्धए वा, सत्तविह बन्धए वा, छविह बन्धए वा, एगविह बन्धए वा, नो चेव णं अबन्धए सिया।" अर्थात् जब जीव योग-शक्ति से कंपन करता है, हिलता है, चलता है, स्पन्दन करता है, चेष्टा करता है, क्षुब्ध होता है, उदीरणा करता है, तत् तत् पर्याय में परिणत होता है, तब आठ, या सात, या छह, या एक कर्म का अवश्य बन्ध करता है, किन्तु अबन्धक नहीं होता। मिश्र गुणस्थान में आयु कर्म का बन्ध नहीं होता १-२-४-५-६ इन गुणस्थानों में आठ कर्मों का बन्ध हो सकता है। ७वें गुणस्थान में आयु कर्म का बन्ध यदि छठे गुणस्थान में प्रारम्भ कर दिया, तत्पश्चात् बन्ध करते २ सातवें में जा पहुंचा, तो वहाँ आयु कर्म का जो बन्ध . चालू था, उसे पूर्ण कर सकता है, किन्तु सातवें गुणस्थान में आयु कर्म का बन्ध प्रारम्भ नहीं करता। वे और हवें गुणस्थान में आयु कर्म को छोड़कर सात कर्मों का ही बन्ध होता है। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में आयु और मोह को छोड़कर छह कर्मों का बन्ध होता है । उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली तर