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नदीसूत्रम्
हैं—“महान्-श्रविचिन्त्य शक्त्युपेत श्रात्मस्वभावो यस्य स महात्मा ।” महावीर शब्द की व्युत्पत्ति वृत्तिकार निम्नलिखित की है - "शूर वीर विक्रान्तौ वीरयति स्मेति वीरो विक्रान्तः, महान् — कषायोपसर्ग- परीषहेन्द्रियादिशत्रुगणजयादतिशायी विक्रान्तो महावीरः, अथवा ईर् गति प्रेरणयोः विशेषेण ईरयति गमयति, फेति कर्म प्रापयति वा शिवमिति वीरः, अथवा ' (ऋ) गतौ' विशेषेण अपुनर्भावेन इयर्ति स्म, याति स्म शिवमिति वीरः, महांश्चासौ वीरश्चेति महावीरः । "
इस वृत्ति का भाव है - मन, इन्द्रिय, कषाय, परीषह, प्रमाद आदि आभ्यान्तरिक शत्रुओं के जीतने वीर ही नहीं, अपितु उसे महावीर कहा जाता है । अथवा जो निर्वाण-पद को प्राप्त करता है, जहां से पुन: लौटकर संसार में न आना पड़े, उसे वीर कहते हैं । जो सर्व वीरों में परम वीर हो, उसे महावीर कहते हैं । कामदेव संसार में सबसे बड़ा योद्धा है, जिस ने देव-दानव और मानव को भी पछाड़ दिया है । इस दृष्टि से कामदेव वीर है, किन्तु वर्धमानजी ने उसे भी जीत लिया है अतएव उन्हें 'महावीर' कहते हैं । अर्थात् जिसे जीतना कोई शेष नहीं रह गया, उसे महावीर कहते हैं ।
इस गाथा में 'जय' क्रिया गाथा के प्रत्येक चरण के साथ चार बार आई है, इसका समाधान पूर्ववत् ही समझना चाहिए ।
प्रस्तुत गाथा में श्रुतज्ञान के प्रथम उत्पत्ति कारण और उसके प्रवर्त्तक तीर्थंकर देव, जीवों के हितशिक्षा देने से लोकगुरु, अपौरुषेयवाद का निषेध, तथा महात्मा महावीर इनका सविस्तर विवेचन
किया गया है ।
अपश्चिम शब्द से यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि एक अवसर्पिणीकाल में चौबीस ही तीर्थंकर होते हैं । और इस गाथा में संक्षिप्त रूप से ज्ञानातिशय का भी वर्णन किया गया है ।
स्तुतिकार भगवान् महावीर की स्तुति के अनन्तर उनके अतिशयों का वर्णन करते हुए
लिखते हैं
मूलम् — भद्दं सव्वजगुज्जोयगस्स, भद्दं जिणस्स वीरस्स । भद्दं सुरासुरनमंसियस्स, भद्द
धूयरयस्स ||३|| छाया - भद्रं सर्वजगदुद्योतकस्य भद्रं जिनस्य वीरस्य । भद्रं सुरासुरनमस्यितस्य, भद्रं धूतरजसः ||३||
पदार्थ - भद्द सवजगुज्जोयगस्स - समस्त जगत् में ज्ञान के प्रकाश करने वाले का कल्याण भद्द जिणस्स वीरस्स — रागद्वेषरहित परमविजयी जिन महावीर का भद्र हो, भद्द सुरासुर-नमंसियस्सदेव असुरों के द्वारा वन्दित का भद्र हो, भद्द धूयरयस्स - अष्टविध कर्मरज को सर्वथा नष्ट करने वाले का भद्र हो ।
भावार्थ - विश्व को ज्ञानालोक से आलोकित करनेवाले, रागद्वेष रूप कर्म - शत्रुओं पर विजय पाने वाले वीर जिन का तथा देव-दानवों से वन्दित, कर्मरज से सर्वथा मुक्ति पाने वाले महात्मा महावीर का सदैव भद्र हो ।