________________
महावीर-स्तुति -
हुई श्रुत ज्ञान की बूदें हैं। जिस प्रकार महासमुद्र से वाष्प के रूप में उठा हुआ जल गगन-मण्डल में धूमता रहता है । कालान्तर में वही जल मेघ बनकर बरसने लग जाता है, उससे रूक्ष भूमि भी सरसब्ज हो जाती है। अथवा कुशाग्र में, पत्तों में, तथा फूलों की पांखुड़ियों में जो प्रातः जल की बूंदें नजर आती हैं, उन बिन्दुओं का उद्भव स्थान महासमुद्र ही है । कहा भी है- हे भगवन् ! जो भी अन्य ग्रंथ-शास्त्रों में, दर्शनों में, सुभाषित सम्पदाएँ सम्यग्दृष्टि के द्वारा प्रतीत होती हैं, वे सब वाक्य-बिन्दु आपके पूर्व-महार्णव से ही आये हुए हैं, इसमें जगत् ही प्रमाण है। एक स्तुतिकार ने बहुत सुन्दर शैली से भगवान् की स्तुति की है :
"सुनिश्चितं नः परतंत्र-युक्तिषु, स्फुरन्ति याः काश्चग सूक्ति-सम्पदः ।
तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिता, जगत्प्रमाणं जिन ! वाक्यविपुषः ॥१॥" इस श्लोक का भावार्थ ऊपर दिया जा चुका है। अतः श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में भगवान महावीर ही कारण हैं। कारण कि उनके उपदेश किए हुए अर्थ को लेकर ही सर्व शास्त्रों एवं आगमों की प्रवृत्ति हई है। जैसे कि वृत्तिकार लिखते हैं-"श्रुताना-स्वदर्शनानुगत-सकल-शास्त्राणां प्रभवन्ति सर्वाणि शास्त्राएयस्मादिति प्रभवः-प्रथममुत्पत्तिकारणं तदुपदिष्टमर्थमुपजीव्य सर्वेषां शास्त्राणां प्रवर्तनात् ।" इस कथन से अपौरुषेयवाद का स्वयं खण्डन हो जाता है । स्तुतिकार ने भगवान् महावीर स्वामी के लिए विशेषण दिया है
तिस्थयराणं अपच्छिमो-जो इस अवसपिणी काल में तीर्थंकरों में अन्तिम तीर्थकर हए । तीर्थकर शब्द का अर्थ होता है-भावतीर्थ की स्थापना करने वाले। जिससे संसार तैरा जाए, उसे भावतीर्थ कहते हैं, जैसे- तीर्यते संसारो ऽनेनेति तीर्थः-यहां द्रव्य-तीर्थ का आशय नहीं, भावतीर्थ से है । भावतीर्थ चार प्रकार के होते हैं, जैसे-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका। इन चार तीर्थों की स्थापना करने वाले को तीर्थकर कहते हैं। 'अपच्छिम' शब्द सूचित करता है कि इनके पश्चात् अन्य तीर्थकर इस अवसर्पिणीकाल में नहीं होंगे। अत: भगवान् महावीर स्वामी अन्तिम तीर्थकर हुए हैं, जैसे कि कहा भी है--"-तीर्थकराः, तेषां तीर्थकराणाम्-अस्मिन् भारते वर्षेऽधिकृतायामवसर्पिण्यां न विद्यते पश्चिमोऽस्मादित्यपश्चिमः-सर्वान्तिमः, पश्चिम इति नोक्तम्, अधिक्षेपसूचकत्वात्पश्चिमशब्दस्य । पश्चिम शब्द अमंगल होने से उसका प्रयोग नहीं किया।
गुरू लोगाणं-स्तुतिकार ने तीसरा विशेषण दिया है—'गुरुर्लोकानां' किसी एक व्यक्ति या एक संप्रदाय के गुरु नहीं अपितु, लोक के गुरु । क्योंकि उन्होंने सभी वर्गों को और सभी आश्रमवासियों को निःस्वार्थ तथा परमार्थ भाव से धर्मोपदेश सुनाया है। अतः वे लोकपूज्य होने से लोकमात्र के गुरु बन मए । इस का भाव वृत्तिकार ने निम्न प्रकार से व्यक्त किया है, जैसे कि--"जयति गुरुर्लोकानामिति लोकाना-सत्त्वानां गृणाति प्रवचनार्थमिति गुरुः, प्रवचनार्थ प्रतिपादकतया पूज्य इत्यर्थः।"
जयइ महप्पा महावीरो-जयति महात्मा महावीरः इस पद से स्तुतिकार ने महावीर को महात्मा कहा है । जिसने अपने आप को महान् बनाया है, वह दूसरों को भी महान् बनाने में निमित्त बन सकता है। जिसका स्वभाव अचिन्त्य शक्ति से युक्त हो, उस आत्मा को महात्मा कहते हैं। इस पर वृत्तिकार लिखते