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________________ नन्दीसूत्रम् मतुप् प्रत्ययान्त होने से भगवान् शब्द बनता है। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि 'जयइ' क्रिया दो बार आने से पुनरुक्ति दोष क्यों न माना जाए ? इसका समाधान यह है कि स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषध, उपदेश, स्तुति, दान और सद्गुणोत्कीर्तन, इनमें पुनरुक्ति का दोष नहीं माना जाता, जैसे कि कहा भी है . "सज्झाय, माण, तव असहेसु उवएस-थुइ-पयाणेसु।। .संतगुणकित्तणेसु यन्न होति पुणरुत्तदोसा उ॥" . उपर्युक्त अर्थों में पुनरुक्त दोष नहीं होता। इस प्रकार इस गाथा में आए हुए पदों के अर्थों को हृदयंगम करना चाहिए। इस गाथा में आस्तिकवाद, जीवसत्ता, सर्वज्ञवाद इत्यादि विषय वर्णन किए गए हैं। इन वादों का विस्तृत वर्णन जिज्ञासुगण मलयगिरिसूरिजी की वृत्ति में देख सकते हैं। महावीर-स्तुति मूलम्-जयइ सुप्राणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ। __जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो ॥२॥ छाया-जयति श्रुतानां प्रभवः, तीर्थंकराणामपश्चिमो जयति । जयति गुरुर्लोकानां, जयति महात्मा महावीरः ॥२॥ पदार्थ-जयइ सुप्राणं पभवो---समग्र श्रुतज्ञान के मूलस्रोत जयवन्त हैं, तित्ययराणं अपच्छिमो जयह-२४ तीर्थंकरों में अन्तिम तीर्थंकर जयशील हैं, जयइ गुरू लोगाणं-जयवन्त होने से ही लोकमात्र के गुरु हैं, जयइ महप्पा महावीरो-महात्मा महावीर अपने आत्मगुणों से सर्वोत्कृष्ट हैं, अतः जयवन्त हैं। भावार्थ-समस्त श्रुतज्ञान के मूलस्रोत, चालू अवसर्पिणीकाल के २४ तीर्थंकरों में सब से अन्तिम तीर्थंकर जो लोकमात्र के गुरु हैं। क्योंकि निःस्वार्थ भाव से हितशिक्षा देने वाले ही गुरु होते हैं । इन विशेषणों से सम्पन्न महात्मा महावीर सदा जयवन्त हैं । जिन्हें कोई विकार जीतना शेष नहीं रहा, वे ही जयवन्त हो सकते हैं। ... टीका-इस गाथा में भगवान् महावीर की स्तुति की गई है। जितना भी द्रव्यश्रुत तथा भावश्रुत है, उसका उद्भव श्री महावीर से ही हुआ है। भगवान् महावीर ने ३० वर्ष तक केवल ज्ञान की पर्याय में विचर कर जनता को जो धर्मोपदेश, संवाद और शिक्षाएँ दीं, वे सब के सब श्रतज्ञान के रूप में परिणत हो गए। श्रोताओं तथा जिज्ञासुओं में जैसा जैसा क्षयोपशम था, वैसा-वैसा ही उनमें श्रुतज्ञान उत्पन्न हुआ। किन्तु उस श्रुतज्ञान के उत्पादक भगवान् महावीर स्वामी ही हैं। जो अन्ययूथिक के शास्त्रों में अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, तप, क्षमा, मार्दव, संतोष, आध्यात्मिकवाद इत्यादि आंशिक रूपेण धर्म और आस्तिकवाद दृधिगोचर होते हैं, वे सब भगवान की दी
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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