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न भविस्सइ, भुवि च भवइ य, भविस्सइ य, धुवे, नियए सासए, अक्खए, अट्ठिए, निच्चे ।
से समासओ चउविहे पण्णत्ते, तं जहा - दव्वप्रो, खित्तस्रो, कालो, भावप्रो, तत्थ
दवणं सुयनाणी उवउत्ते - सव्वदव्वाइं जाणइ, पासइ । खित्तो णं सुयनाणी उवउत्ते सवं खेतं जाणइ, पासइ । कालो णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वं कालं जाणइ, पासइ । भावप्र णं सुयनाणी उवउत्ते - सवे भावे जाणइ, पासइ ।।।सूत्र ५७॥ अक्खर सन्नी सम्मं, साइयं खलु सपज्जवसियं च । गमियं अंगपविट्ठ, सत्तवि एए सपविक्खा ||१३|| आगम सत्थग्गहणं, जं बुद्धिगुणेहिं अट्ठहिं दिट्ठ । बिति सुयनाणलंभं तं पुव्वविसारया धीरा ॥ ६४ ॥ सुस्सूसइ पडिपुच्छर सुणइ, गिण्हइ य ईहए यावि । ततो अपोहए वा, धारेइ करेइ वा सम्मं ॥ ६५ ॥ मू हुंकारं वा, बाढक्कारं पडिपुच्छर वीमंसा । तत्तो पसंगपारायणं च परिणिट्ठ सत्तम ॥ ६६ ॥ सुत्तत्थो खलु पढमो, बीग्रो निज्जुत्तिमीसित्रो भणियो । तइओ निरवसेसो, एस विही होइ प्रणुप्रोगे ॥६७॥ सेत्तं अंग विट्ठ, सेत्तं सुयनाणं, से त्तं परोक्खनागं से त्तं नंदी ॥
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