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हो सकते हैं, किन्तु आराधक भव जितने अधिक-से-अधिक हो सकते हैं, 'वे आठ ही हो सकते हैं अधिक नहीं। यह कथन जघन्य रत्नत्रय के आराधक के विषय में समझना चाहिए ।
ज्ञान सम्यक्त्व का सहचारी गुण है और अज्ञान मिथ्यात्व का । सम्यग्ददर्शन के समकाल जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उनको ज्ञान आराधना और दर्शन आराधना नहीं कहते, अपितु उसके निरतिचार पालन करने को आराधना कहते हैं । रत्नत्रय में दोष न लगाना अथवा दोष लग जाने पर मायारहित आलोचना, निन्दना, गर्हणा आदि प्रायश्चित करने से रत्नत्रय को विशुद्ध, विशुद्ध तर करना ही आराधना कहलाती है । रत्नत्रय की साधना में उत्तीर्ण होने को आराधक कहते हैं और अनुत्तीर्ण होने को विराधक । श्रुतज्ञान की जब सर्वोच्च आराधना होती है, तव वह आराधक उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार दर्शन
और चारित्र के विषय में समझ लेना चाहिए। जब तीनों की आराधना सर्वोच्च श्रेणी तक पहुंच जाए, तब उसी भव में आत्मा का मोक्ष हो जाता है !
साधक के जीवन का मूल्यांकन आयु के अन्तिम क्षण में ही हो जाता कि जीवन आराधनामय व्यतीत हआ. है या विराधनामय । यदि जीवन आराधनामय रहा तो काललब्धि या कर्मशेष रहने पर आगे आने वाले मनुष्यभव जितने भी होंगे, वे सब आराधनामय ही व्यतीत होंगे। देव भव और मनुष्य भव के सिवा अन्य नरक और निर्यच गति में भोगने योग्य कर्म प्रकृतियों का वह बन्ध नहीं करता। देवों में वैमानिक और मनुष्यों में उच्चकुल, उच्चज्ञाति में जन्म लेता है । मनुष्य भव में उत्तरोत्तर आराधना विशुद्ध-विशुद्धतर होती जाती है। जिस भव में रत्नत्रय की सर्वोच्च आराधना हो जाएगी, उसी भव में ही मोक्ष प्राप्त होता है । यदि एक में भी अपूर्णता रहीं तो मोक्ष नहीं, देव भव करना पड़ता है । तीनों की आराधना जब तक सर्वोत्कृष्ट नहीं हो जाती, तब तक मोक्ष नहीं, ऐसा केवलज्ञानियों का अटल सिद्धान्त है। जहां तीनों की आराधना सर्वोत्कृष्ट हो, वहां ३, जहां मध्यम स्तर पर हो वहां २, जहां जघन्य स्तर पर आराधना हो वहां १, यह चिह्न आराधना के परिचायक हैं। यदि इनके प्रस्तार बनाए जाएं तो १७ भेद बनते हैं, जैसे कि
ज्ञान दर्शन चारित्र
ज्ञान दर्शन चारित्र | ज्ञान दर्शन चारित्र
ज्ञान दर्शन चारिज्ञ
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धर्म का त्रिवेणी संगम
भगवान महावीर ने एक बार अपने प्रवचन में जनता को धर्म का स्वरूप बतलाते हुए कहा था, कि धर्म तीन प्रकार का है अथवा धर्म की आराधना तीन प्रकार से की जा सकती है, जैसे कि
. १, सु-अध्ययन, २. सुध्यान, ३. सुतप । 'सु' के स्थान में सम्यक् का प्रयोग भी कर सकते हैं। 'सु' और सम्यक् का एक ही अर्थ है । विधिपूर्वक श्रद्धा एवं विनय के साथ अध्ययन करना धर्म है । अथवा अनुप्रेक्षा पूर्वक अध्ययन करने को सु-अध्ययन कहते हैं । अनुप्रेक्षा को दूसरे शब्दों में निदिध्यासन भी कहते