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________________ उत्कृष्ट हो रही है ? उत्तर देते हुए भगवान ने कहा--- गौतम ! जिस की ज्ञान-आराधना उत्कृष्ट हो रही है, उस की चारित्र आराधना उत्कृष्ण और मध्यम दोनों तरह की हो सकती है. किन्त जिंस की चारित्र आराधना उत्कृष्ठ हो रही है, उस की ज्ञान आराधना उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य तीनों तरह की हो सकती है। यहाँ उत्कृष्प चारित्र से तात्पर्य है-पांच चारित्रों में से किसी एक चारित्र का चरम सीमा तक पहुंच जाना । उत्कृष्ट ज्ञान आराधना का अर्थ प्रतिपूर्ण द्वादशाङ्ग गणिपिटक का ज्ञान प्राप्त करना तथा अयोगि भवस्थ केवलज्ञान के होते हुए यथाख्यात चारित्र की उत्कृष्ता का होना। जिस की चारित्र आराधना उत्कृष्ट हो रही है, उस की दर्शन आराधना नियमेन उत्कृष्ट ही होती है, किन्तु दर्शन की उत्कृष्ट आराधनों में चारित्र को आराधना उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यः तीनों तरह की हो सकती है। उत्कृष्ट ज्ञानाराधना का फल उक्कोसियं णं भंते ! नाणाराहणं पाराहित्ता कइहिं भवग्गहणेहिं सिझइ गोथमा ! भरथेगइए तेणेष भवग्गहणेणं सिज्मइ, जाव अंत करइ। अत्थेगइए । दोच्चेणं भवगाहणेणं सिज्मइ जाव अंतं करेइ । अत्थेगइए कप्पोवएसु कप्पातीएसु वा उववज्जह । भगवन् ! जीव उत्कृष्ठ ज्ञान आराधना करके कितने भवों में सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? भगवान ने उत्तर दिया-गौतम ! कोई उसी भव में सिद्ध होता है और कोई दूसरे भव को अतिक्रम नहीं करता, कोई कल्प देवलोकी में और कोई कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होता है । इसी प्रकार उत्कृष्ट दर्शन और उत्कृष्ट चारित्र आराधना का फल समझना चाहिए । अन्तर केवल इतना ही है, उत्कृष्ट चारित्र का आराधक कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होता है, कल्प देवलोकों में नहीं। यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयत आयु बांधकर उपशान्तकषाय-वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान में काल करे तो यह औपशमिक चारित्र की उकृष्टता है और वह निश्चय ही अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होता है। दोच्चेणं भवग्गहणणं सिज्झइ-उत्कृष्ट ज्ञानाराधक जीव कभी भी मनुष्य गति में उत्पन्न नहीं होता । कर्म शेष रहने पर नियमेन देवलोक में उत्पन्न होता है, फिर वह दूसरे भव से कैसे सिद्ध होता है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि एक भव देवगति का बीच में करके वहाँ से आयु पूरी करके निश्चय ही वह मनुष्य बनता है, वह जीव उस भव में नियमेन सिद्ध हो जाता है । मनुष्य के दोनों भव आराधक ही रहते हैं । अथवा जिस भव में आराधना की है, उसके अतिरिक्त एक देव भव और दूसरा मनुष्य भव इस अपेक्षा से दूसरे भव को अतिक्रम नहीं करता । मनुष्य भव के अतिरिक्त अन्य भव में रत्नत्रय की आरावना नहीं हो सकती । रत्नत्रय का मध्यम आराधक उसी भव में सिद्धत्व प्राप्त नहीं कर सकता, दूसरे भव में सिद्ध हो सकता है, अन्यथा तीसरे भव को अतिक्रम नहीं करता। इस कथन से भी दूसरा या तीसरा मनुष्य भव आश्रयी समझना चाहिए। जिस साधक ने रत्नत्रय की जघन्य आराधना की है, वह तीसरे भव से पहले सिद्ध नहीं हो सकता। वह तीसरे भव से अधिक-से-अधिक सात-आठ भव से अवश्य सिद्ध हो जाएगा। जब तक जीव चरमशरीरी बनकर मनुष्य भव में नहीं आता, तब तक क्षपक श्रेणि में आरोहण नहीं कर सकता। आराधक मनुष्य वैमानिक देव के अतिरिक्त अन्य किसी गति में नहीं जाता और देव भव से च्यवकर सिवा मनुष्य भव के अन्य किसी गति में उत्पन्न नहीं होता। विराधक संयमसहित मनुष्य भव तो असंख्यात भी
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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