SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८ हैं। स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय कर्म प्रकृतियों का क्षय होता है। स्वाध्याय पांच प्रकार से किया जाता है-आगमों का अध्ययन करना, शंका होने पर ज्ञानी गुरु से पूच्छना, सीखे हुए आगमों की पुनः पुनः आवृत्ति करते रहना, आगम के अनुसार श्रोताओं को धर्मकथा या धर्मोपदेश करते रहना, अनुप्रेक्षा स्वाध्याय का पांचवां प्रकार है । अनुप्रेक्षा के बिना उक्त चार प्रकार का स्वाध्याय मिथ्याहष्टि भी कर सकता है, किन्तु अनुप्रेक्षा-स्वाध्याय सिवाय सम्यग्दृष्टि के अन्य कोई व्यक्ति नहीं कर सकता। अनुप्रेक्षा करने से आयु कर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मों के प्रगाढ़ बन्धन शिथिल हो जाते हैं, दीर्घकालिक स्थिति क्षय होकर अल्पकालीन रह जाती है, उन कर्मों का तीव्र रस मन्द हो जाता है । यदि कर्म बहुप्रदेशी हों, तो वे स्वल्प प्रदेशी हो जाते हैं, इतनी महानिर्जरा अनुप्रेक्षा पूर्वक अध्ययन करने से होती. है। स्वाध्याय करने से वैराग्य भावना जाग्रत होती है, कर्मों की मिर्जरा होती है; ज्ञान विशुद्ध होता है, चारित्र के परिणाम बढ़ते ही जाते हैं। धर्म में स्थैर्य होता है. देवाय का बन्ध होता है. भवान्तर में यथाशीघ्र रत्नत्रय का लाभ होता है । मन, वचन और काय गुप्त होते हैं, शल्यत्रय का उद्धरण होता है, पांच समितियां समित हो जाती हैं, ये हैं सु-अध्ययन के सुपरिणाम । इसलिए सु-अध्ययम धर्म का पहला अंग है। सुध्यान-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत, अथवा आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय, इन में मन को लगाना आर्त तथा रौद्र ध्यान से मन को हटाना अथवा ध्यान निर्विषयं मन: ये सब तरीके सुध्यान के हैं । सुध्यान में धर्म और शुक्ल दोनों का अन्तर्भाव हो जाता है। सुतपः-सम्यक तप यह धर्म का तीसरा प्रकार है। जिससे विषय कषाय और संचित कर्म भस्मसात् हो जाएं, उसे तप कहते हैं । तप का विशेष विवरण औपपातिक सूत्र, उत्तराध्ययन ३०वां अध्ययन, भगवती सूत्र श० २५वां, उ० ७वां, अन्तकृद्दशाङ्ग सूत्र । अनुत्तरोपपातिक सूत्र, तत्त्वार्थ सूत्र का नौवां अध्याय तथा स्थानांग सूत्र, इन सूत्रों में जिज्ञासुजन देख सकते हैं। सम्यक् प्रकार से अध्ययन होने पर ही सुध्यान हो सकता है । सुध्यान होने पर ही सुतप की आराधना हो सकती है। अतः सिद्ध हुआ सु-अध्ययन होने पर ही धर्म की अन्य-अन्य प्रक्रियाएं चालू हो सकती हैं । अतः धर्म का पहला अंग सु-अध्यवन ही है।' नन्दीसूत्र का अध्ययन करना भी इसी धर्म में सम्मिलित है, क्योंकि स्वाध्याय धर्मध्यान का आलंबन है। इसके बिना जीवन उन्नति के शिखर पर नहीं पहुंच सकता। श्रुतज्ञान की आराधना स्वाध्याय से ही हो सकती है। हमारे मन में जितनी श्रद्धा-भक्ति, श्रमण भगवान् महावीर के प्रति है, उनके वचनामृतरूप आगमों के प्रति भी वही श्रद्धा होनी चाहिए, क्योंकि हमारे लिये इस युग में आगम ही भगवान हैं। १. स्थानांग सूत्र स्था० ३, उ०४ ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy