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मिलता है । और ठीक इससे विपरीत किये हुए अशुभ कर्म = पाप के उदय से सर्वथा प्रतिकूल - दुःख ही दुःख मिलता है। जैसे कर्म वैसे फल इस तरह इस नियमानुसार संसार के संसारी जीव सुख-दुःख के संयोग-वियोग में जीवन खेलते रहते हैं । समुद्र की लहरों की ज्वार-भाटे की तरह जीवन सुख-दुःख से चलता रहता है ।
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पूर्व में पाप की प्रवृत्ति करते जाना... . और उस किये हुए पापों के आधार पर.... कर्म बांधते जाना, फिर उन कर्मों के उदय में वैसी परिस्थिति-मति आदि बनना । और पुनः पाप की प्रवृत्ति करने की ही इच्छा होना... पाप करते करते पुनः वैसे भारी अशुभ कर्म बांधना – पुनः उन कर्मों के उदय से वैसी मति आदि बनना... . और उसके कारण पुनः पापादि करना ऐसा यह पाप और कर्म का विषचक्र चलता ही रहता है। बस, इसी तरह संसार अनन्त काल तक चलता ही रहता है । अनन्त भव बीत जाते हैं इसमें । मिथ्यात्व मोहनीय आदि की बडी लम्बी तीव्र कर्मप्रकृतियाँ बंधती ही जाती है । कषायादि की मन्दता हो तो कर्म की दीर्घ स्थितियाँ नहीं बंधती है । परन्तु एक तरफ तीव्र गाढ मिथ्यात्व का आधार बना हुआ हो और इसके साथ कषायादि भावों की भी तीव्रता हो तो बडी लम्बी दीर्घ कर्मस्थितियों का बंध होता है । परन्तु यदि मिथ्यात्व की उपस्थिति ही न हो और कषायों की भी मन्दता हो तो जीव इतनी भावी दीर्घ बंधस्थिति नहीं बांधता है। आखिर जीवविशेष की परिणति पर है। इसलिए जिस जीव की जैसी परिणति - अध्यवसाय धारा रहती है उसके आधार पर वह जीव वैसी कर्मस्थिति बांधता है और संसार में सुखी या दुखी होता है । आज दिन तक के अनन्त कालीन इस संसार चक्र के परिभ्रमण काल में जीव ने अनन्तबार भारी-भारी कर्म बांधे और उसकी सजा भी भुगती - बड़ा भारी दुःख
भी सहन किया । फिर भी मिथ्यात्व की विपरीत धारा की उसकी मति ही न बदली । अतः
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वह जीवविशेष दीर्घ कर्मबंध की स्थितियों से बच ही न सका। इस तरह अनन्तकाल तक उसका संसार परिभ्रमण चलता ही रहा ।
अन्त: कोडाकोडी की स्थिति करना
प्रत्येक कर्म जो भी जीव ने जैसा भी उपार्जन किया है उस जीव को वैसा भुगतना तो पडेगा ही । चाहे वह हँसकर भोगे या चाहे रो-रोकर भोगे आखिर भुगतना ही पड़ेगा । प्रत्येक बांधा हुआ कर्म अपने नियत समय पर ... उदय में तो आता ही है और वह कर्म सुख-दुःख देकर कालावधि पूर्ण होने पर ... आत्मा से वियोग पाकर बिखर जाता है। इस तरह कर्म का नियम ही है कि वह बंध के बाद उदय में आता है और सुख-दुःखादि
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण
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