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प्राप्त कर लेता है । इन तीन करणों में प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण का विवेचन आगे कर आए हैं। अब शेष दो के बारे में विचार करें ।
कर्मबंध की उत्कृष्ट स्थितियाँ
जैन कर्मशास्त्रों में ८ कर्मों के आत्मा के साथ ४ प्रकार के बंधों में “ स्थिति बंध" भी बताया गया है । एक बार आत्मा के साथ कर्म एकरस हो जाने के बाद अर्थात् बंध जाने के बाद कितने काल तक वह कर्म आत्मा के साथ ही चिपका हुआ रहेगा ? इस प्रकिया को स्थितिबंध कहा है । तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के सूत्रों में कालमान इस प्रकार हैआदितस्तिसृणामन्तरायस्य च विंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥ ८-१५ ॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥ ८-१६॥
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नामगोत्रयोर्विंशतः ॥ ८-१७॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य ॥ ८-१८ ॥
ज्ञानावरणीय कर्म - ३० कोडा कोडी सागरोपम दर्शनावरणीय कर्म - ३० कोडा कोडी सागरोपम
- ३० कोडा कोडी सागरोपम
- ७० कोडा कोडी सागरोपम
३३ सागरोपम
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वेदनीय कर्म मोहनीय कर्म आयुष्य कर्म
नाम कर्म
गोत्र कर्म
अंतराय कर्म
२० कोडा कोडी सागरोपम
- २० कोडा कोडी सागरोपम
- ३० कोडा कोडी सागरोपम
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इस तरह आठों कर्मों की उत्कृष्ट बंधस्थितियाँ शास्त्रों में बताई हैं । यदि एक बार किसी भी भयंकर पाप की प्रवृत्ति से जो भी कर्म उत्कृष्ट स्थितिकाल का बंध हो तो इतने - इतने सागरोपमों का बंधता है । अर्थात् इतने लम्बे सागरोपमों के दीर्घकाल तक (अरबों-खरबों से भी ज्यादा वर्षों के काल तक) कर्म आत्मा पर चिपके रहते हैं । इनका अबाधाकाल होने पर उदय शुरु हो जाता है । जिसके उदय से सुख-दुःख जो भी मिलना है मिलता रहता है । किये हुए शुभ कर्म = पुण्य के उदय से सबकुछ सानुकूल सुखरूप
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आध्यात्मिक विकास यात्रा