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________________ तीन करणों की आवश्यकता करणं अहापवत्तं अपुव्वमनियट्टियमेव भव्वाणं । इयरेसिं पढमं चिय भन्नइ करणं ति परिणामो ॥। १२०१ ।। मोक्ष की प्राप्ति यह चरमफल है । जबकि तीन प्रकार के करण करना मोक्षप्राप्ति हेतु सर्वप्रथम कर्तव्य है । अनादिकालीन गाढ मिथ्यात्व में से मिथ्यात्व की मात्रा कम करती हुई आत्मा मंद, मंदतर, मंदतम मिथ्यात्व की स्थिति में आकर तथाभव्यत्व परिपक्व होने से मोक्ष प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होती हुई, प्रथमावस्था में १) यथाप्रवृत्तिकरण, २) अपूर्वकरण, ३) अनिवृत्तिकरण, नाम के तीन करण करना चाहिए । किये जाते हैं । यह श्लोक में “करणं ति परिणामो" - करण अर्थात् आत्मा का परिणाम विशेष । परिणाम कोही आत्मा का अध्यवसाय भी कहा जाता है । भाव भी प्रचलित भाषा में है । शक्तिविशेष भी कहते हैं । - 1 अनादिकालीन आत्मा पर लगे हुए भारी कर्मों की गांठ भेदने के लिए ग्रन्थिप्रदेश समीप में आने की प्रक्रिया को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । इसमें उत्कृष्ट कर्मबंध की स्थितियों का घात करता हुआ जीव अन्तःकोडा कोडी सागरोपम की करके ग्रन्थिप्रदेश के समीप लाने का काम करता है। इसके पश्चात २) आत्मा की अभूतपूर्व शक्ति का प्रयोग करके स्थितिघात, रसघात आदि करने की प्रक्रिया को दूसरा करण “ अपूर्वकरण” कहते हैं । ३) इसके बाद तीसरा करण जीव करता है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने तक परिणाम पुनः गिर न जाए अर्थात् निवृत्ति न हो जाय ऐसे आत्मा के अध्यवसाय विशेष को “ अनिवृत्तिकरण” कहते हैं । " 1 उपरोक्त तीनों ही प्रकार के आत्मिक अध्यवसायरूप परिणाम नामक करण क्रमशः अधिक—अधिक विशुद्ध-विशुद्धतर – विशुद्धतम कक्षा के होते हैं। इन तीन करणों में से अभव्य जीव मात्र पहला यथाप्रवृत्तिकरण ही कर पाता है। वह कदापि उसमें आगे नहीं बढ सकता है । जबकि भव्यात्माओं के लिए तीनों करण आगे बढने में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होते हैं । केवल उपयोगी ही नहीं अपितु अत्यन्त आवश्यक हैं। बिना इन तीन करणों को किये कोई भी भव्य जीव सम्यक्त्व पा नहीं सकता । अतः तीन करण करके सम्यक्त्व पाकर आगे बढ़ें। तीनों करण कहाँ किये जाते हैं इसका स्थाननिर्देश करते हुए कहते हैं कि- १) ग्रन्थिप्रदेश तक आने के पहले यथाप्रवृत्तिकरण, २) ग्रन्थिभेद करते समय अपूर्वकरण, और ३) दूसरे के पश्चात् तुरंत तीसरा अनिवृत्तिकरण करके जीव सम्यक्त्व सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण ५०३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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