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देकर कालावधि की समाप्ति के बाद आत्मा के प्रदेशों से सदा के लिए बिखर जाता है। लेकिन पीछे जो कर्म की माला-श्रेणी खडी है उनमें से क्रमशः एक के बाद दूसरा - दूसरे के बाद तीसरा उदय में आता ही रहता है। इसी कारण अनन्त काल तक संसार चलता ही रहता है।
कर्म के स्वाभाविक उदय की अपेक्षा भी विशेष उदीरणादि द्वारा भी जीव भारी अकामनिर्जरादि करता हुआ प्रबल कर्मों की स्थिति क्षीण करता है । पहले जैसा कि हम देख आए हैं कि ... नदीगोलपाषाण न्याय, या घूणाक्षरन्याय से भी प्रवृत्ति करता हुआ जीव .... . या चीटियों आदि की तरह प्रवृत्ति करता हुआ अनिच्छा होते हुए भी अत्यन्त ज्यादा दुःखों को भारी मात्रा में सहन करने से जीव तीव्र कर्मों को खपाता है । क्षीण करता
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है । इससे कर्म की बंधस्थितियाँ जो बहुत लम्बी... बडी दीर्घ थी वे काफी ज्यादा मात्रा में घटकर कम हो जाती है । भले ही मिथ्यात्व सत्ता में पडा हुआ हो लेकिन दबकर . पडा हो, शान्त रह जाय और जीव अपुनर्बंधक आदिधार्मिक की पूर्व भूमिका में आ जाय और मिथ्यात्व तथा कषायों सर्वथा मन्द - मन्दतर स्थिति में रहे तो ऐसी प्रवृत्ति में जीव पुनः नई लम्बी - दीर्घकालीन उत्कृष्ट स्थिति के कर्म नहीं बांधता है । और अकामनिर्जरादि द्वारा पूर्व की बंधस्थितियाँ काफी ज्यादा प्रमाण में क्षीण करता है । इस तरह कर्म की उत्कृष्ट बंधस्थितियाँ क्षीण होती हैं। जीव न्यून स्थिति के अंदर आ जाता है । सम्यक्त्व प्राप्त करने के पहले किसी भी स्थिति में जीव को यह प्रक्रिया करनी अनिवार्य है। सभी कर्मों की उत्कृष्ट बंधस्थितियाँ सब क्षीण करते हुए अन्तः कोडाकोडी के अन्दर लाना अनिवार्य
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है ।
इन सातों कर्मों की उत्कृष्ट बंधस्थितियाँ क्षीण करके घटा करके... एक कोडा कोडी सागरोपम के अन्दर की करनी चाहिए। उसे कहते हैं अन्तः कोडाकोडी की स्थिति करना । थोडा यहाँ सोचिए ... जिस मोहनीय कर्म की ७० कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट बंधस्थिति है उसमें से ६९ कोडाकोडी सागरोपम की बंधस्थिति क्षीण करके खपा करके ... शेष मात्र एक कोड़ा कोडी सागरोपम की ही रखना । मिथ्यात्व सत्ता में पडा हुआ होते हुए भी यह काम उसी मिथ्यात्वी जीव को ही करना है । इस तरह आयुष्य के सिवाय सातों कर्मों की उत्कृष्ट बंधस्थितियाँ क्षीण करके अंतः कोडा कोडी सागरोपम की करने के पश्चात्
. अर्थात् शेष सातों कर्मों की अन्तः कोडा कोडी सागरोपम की करने के पश्चात ही जीव अपुनर्बंधक - आदिधार्मिक बनता है। बस उसके पश्चात् पुनः वैसी उत्कृष्ट बंधस्थिति नहीं बांधता है । इस तरह यथाप्रवृत्तिकरण की प्रक्रिया में उपरोक्त बंधस्थितियाँ क्षीण करने का
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आध्यात्मिक विकास यात्रा