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साथ बंधी हुई है । इसे भेदना- तोडना बडा मुश्किल काम है । परन्तु इस अवरोध को जब तक दूर नहीं करेंगे तब तक आध्यात्मिक विकास के श्रीगणेश ही संभव नहीं है ।
ग्रन्थिदेश में आए हुए जीवों का वर्तन विविध प्रकार का होता है । यथाप्रवृत्तिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जो आत्मा को ग्रन्थिभेदन करने के प्रदेश के समीप लाती है । अतः गांठ तोडने के पहले की प्रक्रिया है यथाप्रवृत्तिकरण । इस तरह सामान्य यथाप्रवृत्तिकरण की प्रक्रिया करते हुए अभव्य जीव अनन्तबार इस ग्रन्थिप्रदेश के समीप आ जाता है । परन्तु अभव्य जीव इस ग्रन्थि का भेदन नहीं कर सकते है। इसका सबसे बडा कारण यह है कि अभव्यों के पास सामग्री की विकलता है । राग-द्वेष कषायों को हटाने में कारणभूत ऐसे विशिष्ट अध्यवसायों आध्यात्मिक परिणामों की न्यूनता - कमी है उसके पास । इसी कारण अभवी जीव ग्रन्थि को न भेदने के कारण संख्येय- असंख्येय काल तक भी ग्रन्थिदेश में शरणार्थी की तरह पड़ा रह जाता है, परन्तु भेद नहीं सकता है
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जैसे रेशम के धागे पर मजबूत ८-१० गांठे लगाई गई हो और उसपर एरण्डी का तेल डाला हो और उसके बाद सर्वथा नाखून काटे हुए गृहस्थ को उस गांठ को खोलने के लिए कहा जाय तो कितना मुश्किल लगता है? ठीक इसी तरह अनादि अनन्त काल अनन्तानुबंधी आदि कषायों की तीव्रता से राग-द्वेष के उत्कट परिणामों से आत्मा में राग-द्वेष की गांठ पड जाती है।
अंतिम कोडाकोडीए सव्वकम्माणमाउवज्जाणं । पलिया संखिज्जइमे भागे खीणे भवइ गंठी ॥ ११९४ ॥
भिन्नम्म तम्मि लाभो सम्मत्ताईण मोक्खहेऊणं । सोय दुलो परिस्सम-चित्तविद्यायाइविग्धेहिं ॥ ११९६ ॥
- विशेषावश्यक भाष्य महाशास्त्र में कहते हैं कि आयुष्यकर्म के सिवाय अन्य सातों ज्ञानावरणीयादि कर्मों की अन्तिम १ कोडा कोडी सागरोपम प्रमाणस्थिति में से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति का क्षय होने पर जीव ग्रन्थिप्रदेश को प्राप्त
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करता है । इस ग्रन्थिप्रदेश में लाने में सहायक प्रक्रिया यथाप्रवृत्तिकरण की है। ऐसे भयंकर राग-द्वेष की निबिड गाढ गांठ को भेदने के लिए जीव को अभूतपूर्व शक्ति का प्रयोग करना पडता है । जो जीव अपूर्व शक्ति का प्रयोग करके विजय पाकर आगे बढ जाय वह सम्यक्त्व का अनोखा साम्राज्य प्राप्त कर सकता है। लेकिन सभी जीव समान शक्तिवाले नहीं होते हैं। कई जीव इस निबिड ग्रन्थि का भेदन करने को दुर्भेद्य - असंभव मानकर
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण
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