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जाते हैं। परन्तु जिनका तथाभव्यत्व परिपक्व हो चुका है ऐसे भव्यात्मा पूर्वप्रवृत्त विशिष्ट प्रकार के यथाप्रवृत्तिकरण की प्रक्रिया के बल पर प्रन्थिभेद करके आगे बढ जाते हैं। आखिर आत्मोन्नति साधने के सोपानों का श्रीगणेश तो यहीं से होता है। यह यथाप्रवृत्तिकरण ही प्रथम सोपान है। तभी आगे के द्वार खुलते हैं। सामान्य कक्षा के यथाप्रवृत्तिकरण का उत्कृष्ट काल असंख्यात समय परिमित है। जबकि विशिष्ट-पूर्वप्रवृत्त यथाप्रवृत्तिकरण का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है । अभव्य जीवों के या भव्यों के भी सामान्य यथाप्रवृत्तिकरण की अपेक्षा विशिष्ट की कक्षा के यथाप्रवृत्तिकरण को करने के लिए प्रतिसमय अनन्तगुनी अध्यवसायों की विशुद्ध की आवश्यकता रहती है तभी जीव आगे बढ पाता है । अभवी जीवों के पास राग-द्वेष की निबीड ग्रन्थि का भेद करने के लिए कारणभूत विशिष्ट प्रकार के अध्यवसायों की कमी-न्यूनता है । अतः वे इस युद्ध को जीत नहीं सकते हैं परन्तु भव्य जीव इसमें सफलता प्राप्त कर सकता है। .
सामान्य यथाप्रवृत्तिकरण करनेवाला वह जीव होता है जिसने अन्तः कोडा कोडी की स्थिती अभी तक नहीं की है, तथा अनन्तगुनी अध्यवसायों की विशुद्धि भी नहीं है। ठीक इससे विपरीत विशिष्ट कक्षा का यथाप्रवृत्तिकरण करनेवाले का तथाभव्यत्व परिपक्व हो चुका है, और अन्तः कोडा कोडी सागरोपम की कर्मस्थिति कर चुका हो तथा अनन्तगुनी अध्यवसाय की विशुद्धि रखता हो वह ग्रन्थिभेद शीघ्र करता है। प्रन्थि का स्वरूप
गंठित्ति सूदुब्मेओ, कक्खड्यणरूळगूढगंठिव्व।।
जीवस्स कम्मजणिओ धणरागहोस परिणामो - ॥११९५ ।। - ग्रन्थि का सामान्य अर्थ होता है “गांठ" । प्रस्तुत में ग्रन्थि शब्द से राग-द्वेष रूप आत्मा का कर्मजनित अतिशय मलिन परिणामविशेष समझना है। यह ग्रन्थि कुंछ और नहीं परन्तु अनन्तानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ रूपचारों कषायों की चौकट है। अपूर्वकरण के बिना इसको परास्त करना असंभव है । क्योंकि यह गांठ अत्यन्त कठोर . और मजबूत है। जैसे बांस (बाम्बु), तथा गन्ने के तने में बीच बीच में गांठ (सन्धिस्थान) होती है, खाते-काटते समय अन्य भाग की अपेक्षा यह ज्यादा कठिन-अभेद्य होता है। . ठीक इसी तरह आत्मा के कर्मजनित गाठ राग-द्वेष के परिणामरूप-अनन्तानुबंधी कषायादि के कारण बनी हुई राग-द्वेष की गांठ... अनादि-अनन्तकाल से आत्मा के
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आध्यात्मिक विकास यात्रा