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फिर भी सतत - गमनागमन की क्रिया करती ही रहती है । चलने फिरने की इस क्रिया में कई चींटियाँ वृक्ष के तने पर भी चढ जाती है, कई दिवाल के सहारे किल्ले पर भी चढ जाती हैं, कई पंखवाली चीटियाँ उड भी जाती हैं। कई चीटियाँ किल्ले पर चढकर नीचे की जमीन पर इधर-उधर घूमती ही रहती है। घूमना - चढना - उतरना - आना-जाना स्वाभाविक चलता ही रहता है ।
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चींटियों की स्वाभाविक गति की तरह जीवों का सहज स्वभाव यथाप्रवृत्तिकरणरूप होता है । किले पर चढने के जैसा अपूर्वकरण होता है । और उडने के जैसा अनिवृत्तिकरण होता है । इस तरह कई जीव सहज स्वाभाविक यथाप्रवृत्तिकरण करते हुए किल्ले अर्थात् ग्रन्थिप्रदेश के समीप आते हैं। दूसरे जीव किल्ले पर चढनेवाली चीटियों की तरह अपूर्वकरण करके ग्रन्थिभेद करके पार भी उतर जाते हैं। सम्यक्त्व पा भी जाते हैं। तथा किल्लों पर न चढकर कई जीव नीचे आस-पास घूमती-फिरती चीटियों की तरह ग्रन्थिप्रदेश में ही पड़े रहते हैं । शरणार्थी बनकर रह जाते हैं। असामर्थ्य व्यक्त करते हैं । पहले तीन मित्रों का दृष्टान्त दिया था वह और दूसरे चींटियों के दृष्टान्त से इन करणों को उपमा से समझा जा सकता है। चींटियों के जैसे तथाप्रकार के जीव इस संसार में होते हैं जो यथाप्रवृत्तिकरणादि करण करते हैं।
करण की उपयोगिता
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यथाप्रवृत्तिकरण शब्द में प्रयुक्त “करण” शब्द आत्मबल, आत्मिक अध्यवसाय, आत्मशक्ति अर्थ में हैं । सामान्य की कक्षा के यथाप्रवृत्तिकरण में सामान्य शक्ति स्फुरायमान होती है । जबकि विशिष्ट कक्षा का यथाप्रवृत्तिकरण उसे कहते हैं जिसमें विशिष्ट कक्षा की शक्ति प्रकट होती है । इसे पूर्वप्रवृत्त यथाप्रवृत्तिकरण भी कहते हैं। यह ग्रन्थिभेद करके अपूर्वकरण आदि आगे के करण कराके रहता है। अन्य करणों की अपेक्षा यह पूर्व में (पहले) प्रवर्तता है अतः पूर्वप्रवृत्त यथाप्रवृत्तिकरण नामकरण सार्थक है ।
जिनमें मोक्ष में जाने की कोई योग्यता - पात्रता ही नहीं होती है ऐसे अभव्य जीव भी सहज स्वाभाविक प्रक्रिया से सामान्य कक्षा का यथाप्रवृत्तिकरण तो वे भी कर लेते हैं । लेकिन वे कभी भी ग्रन्थिभेद नहीं कर सकते हैं। भव्य जीव भी सामान्य कक्षा के यथाप्रवृत्तिकरण की प्रक्रिया करते हैं। उनमें ग्रन्थिभेद करने का सामर्थ्य पूरा है परन्तु जब तक तथाभव्यत्व उनका परिपक्व न हो जाय वहाँ तक वे भी सामान्य की कक्षा में ही रह
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण
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