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जीव जो सामान्य यथाप्रवृत्तिकरण करके आता है वह तुरंत नौ-दो-ग्यारह हो जाता है। भाग जाता है । ऐसा सामान्य कक्षा का यथाप्रवृत्तिकरण कई बार जीव कर लेता है । अभव्य तो सबसे ज्यादा डरपोक होता है । वह तो राग-द्वेष की निबिड ग्रन्थि भेदने में अपने आप को सर्वथा असमर्थ समझकर सीधा ही पलायन हो जाता है।
दूसरे मित्र के जैसा भव्य जीव भी अटवी में ग्रन्थि प्रदेश नजदीक आता है और ग्रन्थि की अभेद्यता देखकर जैसे मानों शरण स्वीकार कर वहीं ग्रन्थिप्रदेश में ही रह जाता है । आशा है कि कभी न कभी तो इस मजबूत राग-द्वेष की अभेद्य ग्रन्थि को भेदकर ही रहूँगा । परन्तु तीसरे मित्र के जैसा अपना तथाभव्यत्व परिपक्व किया हुआ है ऐसा भव्य ". जीव ग्रन्थिप्रदेश रूप अटवी में आता है और राग-द्वेष की ग्रन्थिरूप राक्षसी लूटेरों को देखकर भी डरता नहीं है । बिल्कुल ही घबराता नहीं है और सामान्य की अपेक्षा भी विशिष्ट कक्षा का पूर्वप्रवृत्त यथाप्रवृत्तिकरण करता है। अपनी आत्मशक्ति को पूर्वरूप से प्रवृत्त करता है । इतनी ज्यादा आत्मशक्ति का प्रयोग करता है जिसका पहले कभी भी उपयोग किया ही नहीं था। ऐसी अपूर्व शक्ति का विस्फोट करते हुए वह उत्तम भव्य जीव लूटेरों के साथ संघर्ष में प्राणों की बाजी लगा देने वाले तीसरे मित्र की तरह वह भव्यात्मा संघर्ष की पराकाष्टा में पहुँचकर भी अन्त में विजय प्राप्त करता है । और अनादि-अनन्त काल से राग-द्वेष की यह अभेद्य ग्रन्थि को भेदने का-तोडने का बड़ा भगीरथ कार्य करता है, तथा विजय पाकर अर्थात् सम्यग्दर्शन पाकर ही आगे बढ़ता है । इस विजय का परमानन्द वह अनुभव करता है। यह है यथाप्रवृत्तिकरण की प्रक्रिया। आशा है दृष्टान्त से यह आसानी से समझ में आ सकती है। चीटियों का दूसरा दृष्टान्त
खिइसाभाविअगमणं, थाणूसरणं तओ समुप्पयणं । ठाणं थाणुसिरे वा, औसरणं वा मुइंगाणं
॥१॥ खिइगमणं पिव पढम, थाणूसरणं व करणमप्युव्वं । उप्पयणं पिव तत्तो, जीवाणं करणमनिअट्टी
॥२॥ थाणूव्व गठिदेसो, गंठियसत्तस्स तत्थवत्थाणं । ओयरणं पिव तत्तो, पुणोवि कम्मट्टिइविवड्डी
॥३॥ चीटियाँ स्वाभाविक गति से पृथ्वीतल पर इधर-उधर घूमती ही रहती है। जिनको चौथी इन्द्रिय आँख है ही नहीं ऐसी तीन इन्द्रियवाली चीटियाँ जो देख ही नहीं पाती है
आध्यात्मिक विकास यात्रा