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तीन मित्रों का दृष्टान्त
जइ वा तिण्णि मणूसा, जंतडविपहं सहावगमणेणं । वेलाइक्कमभीआ, तुरंति पत्ता य दो चोरा दट्टं मग्गतडत्ये, तत्थेगो मग्गओ पडिनियत्तो बीओ गहिओ तइओ, समइक्कंतो पुरं पत्तो अडवी भवो मणूसा, जीवा कम्पट्ठिई पहो दीहो । गंठी अ भट्ठाणं, रागद्दोसा य दो चोरा
भग्गो ठिइपरिवुड्डी, गहिओ पुण गठिओ गओ तइओ । सम्मत्तपुरं एवं, जोइज्जा तिन्नि करणाई
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पू. श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण महाराज विशेषावश्यक भाष्य में ३ मित्रों के दृष्टान्त के विषय में कहते हैं कि ... तीन मित्र मिलकर धनोपार्जन - व्यापार हेतु अन्यदेश जा रहे थे । रास्ते के जंगल में उन्हें तीन चोर मिल गए। सदा जंगल में ही रहनेवाले ये चोर लूटेरे किसी भी पथिक को लूटने-मारने का ही काम करते थे । इन मित्रों में से पहला मित्र अटवी में आगे बढा .... , और जैसे ही इन चोर लूटेरों का राक्षसी - भयंकर रूप देखा... वह देखते हां प्रथम मित्र घबराकर वहाँ से नौं- दो- ग्यारह हो गया। सीधा ही पलायन हो
गया ।
फिर दूसरा मित्र आगे बढा । वह उन लूटेरों का राक्षसी - भयंकर रूप देखकर उन्हीं की शरण में वहीं बैठ गया । वापिस जाने का नाम लेने के लिए भी तैयार नहीं था । तीसरा मित्र बडा ही हिम्मतवाला था। वह भी आगे बढा और लूटेरे - चोरों का भयंकर विकराल रूप देखकर भी डरा नहीं । धबराया नहीं । और निश्चय कर लेता है कि... जब वैसे भी मरना ही है तो क्यों न अन्तिम श्वास तक लहूँ ? मार के ही मरूँगा । इस दृढ विचारों से वह उन चोरों के साथ घमासान युद्ध खेलता रहा । जान हथेली में लेकर युद्ध खेलता रहा । अपनी संपूर्ण शक्ति-बुद्धि लगाकर लडते हुए आखिर तीसरे मित्र ने उन चोरों पर विजय पाई और उन्हें हराकर आगे बढा । मार्ग के अवरोधक लूटेरों के मर जाने से तथा विजय प्राप्त करने के विजयोल्लास के आनन्द - उत्साह में आगे बढा ।
इस दृष्टान्त के उपनय में प्रस्तुत यथाप्रवृत्तिकरण का विषय समझिए । जो भयंकर अटवी है वैसा यह संसार है। मार्ग यह मोक्ष मार्ग है। जो आत्मा को मोक्ष तक पहुँचाता है । परन्तु बीच में अवरोधक राग- -द्वेष रूपी लूटेरे चोर मिलें। इन राग-द्वेष की इतनी मजबूत गांठ थी कि इसे अभेद्य मानकर प्रथम मित्र जैसा भव्य या अभव्य की कक्षा का
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण
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