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इस तरह नदीगोलपाषाणन्याय या घूणाक्षरन्याय की तरह जीव यथाप्रवृत्तिकरण की प्रक्रिया करने योग्य बन जाता है।
दो प्रकार का यथाप्रवृत्तिकरण
१. सामान्य
२. विशिष्ट (विशेष) या पूर्वप्रवृत्त
ऐसा यथाप्रवृत्तिकरण दो प्रकार का होता है। १) सामान्य यथाप्रवृत्तिकरण जिसे अभव्य जीव भी कर सकते हैं । और २) दूसरा विशेष-विशिष्ट कक्षा का यथाप्रवृत्तिकरण जिसे शास्त्रों में पूर्वप्रवृत्तयथाप्रवृत्तिकरण कहा है। जिस करण के बाद निश्चित रूप से अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण की प्राप्ति होती ही है ऐसे यथाप्रवृत्तिकरण को दूसरे प्रकार का पूर्वप्रवृत्तयथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। अर्थात् इस दूसरे प्रकार का पूर्वप्रवृत्तयथाप्रवृत्तिकरण करनेवाला भव्यजीव निश्चित ही ग्रन्थिभेद करके अन्य करणों को करता हआ आगे बढकर सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है। सही अर्थ में देखा जाय तो ऐसा यथाप्रवृत्तिकरण आत्मोन्नति या आत्मविकास की दिशा में आगे बढनेवाले जीव के लिए यह सर्वप्रथम पहला मील का पत्थर है । प्रथम प्रयास है । प्रथम सोपान है । इस पर आए बिना जीव आध्यात्मिक विकास का कार्य प्रारंभ कर ही नहीं सकता है । आत्मा के विकास का श्रीगणेश ही नहीं होता है । इसीलिए सर्वप्रथम यथाप्रवृत्तिकरण करना ही चाहिए।
यद्यपि अभव्य जीव जो कि मोक्ष प्राप्ति के लिए योग्य पात्र भी नहीं है, मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा मात्र भी नहीं है ऐसा अयोग्य अभवी जीव यथाप्रवृत्तिकरण कर भी ले तो भी वह कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता है। अर्थात् ग्रन्थिभेद करके सम्यक्त्व नहीं पा सकता है। एकमात्र भव्यात्मा जो मोक्ष प्राप्त करने की योग्यतावाला जीव है वह यथाप्रवृत्तिकरण करके आगे बढ़ता है । यदि आगे के अपूर्वकरण आदि करण न करें तो पूर्व में किया हुआ यथाप्रवृत्तिकरण भी निष्फल चला जाता है । जीव ने अनन्तकाल में ऐसे यथाप्रवृत्तिकरण तो अनन्तबार कर लिए परन्त ग्रन्थिभेद न कर सकने के कारण जीव वापिस भी चले जाते हैं और पुनः कर्मबंध की उत्कृष्ट स्थितियाँ बांधने लग जाते हैं। मिथ्यात्व पुनः गाढ बन जाता है । यहाँ तीन प्रकार के व्यक्तियों का दृष्टान्त समझना उपयोगी सिद्ध होगा।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा