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________________ का ढेर भरा पडा है । अनाभोग - अकामनिर्जरा द्वारा अधिक मात्रा में कर्मों की निर्जरा करता हुआ खपाता हुआ और प्रमाण में थोडे नए कर्म भी बांधता हो तो क्या कालान्तर में भी उस राग- द्वेष की निबिड ग्रन्थि का भेदन करने के लिए ग्रन्थि प्रदेश के समीप नहीं आ सकता है ? जरूर आ सकता है। क्या ऐसे कर्मों की स्थिति जीव घटा नहीं सकता है ? अवश्य घटा सकता है I इस धान्य के दृष्टान्त से, या घूणाक्षर न्याय के दृष्टान्त की तरह जीव कर्मों की स्थिति - बलादि घटाता है । मिथ्यात्व को मन्द बनाता है। इसमें जो आत्मा का अनाभोग अर्थात् बुद्धिपूर्वक का स्वेच्छा का नहीं ऐसा जो परिणाम कारणरूप है उसे यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । नदीगोलपाषाण न्याय का दृष्टान्त इसी यथाप्रवृतिकरण की प्रक्रिया का स्वरूप समझने के लिए... तीसरा एक और दृष्टान्त शास्त्रकारों ने दिया है जिससे भी यथाप्रवृत्तिकरण अच्छी तरह समझा जा सकता है । एक पहाड़ी की घाटी में कोई गिरता हुआ झरना... पाषाणशिलाओं पर पड़ता है । शिलाएं तूटती भी हैं, कुछ पत्थरों को प्रवाह का पानी अपने साथ घसीट कर आगे बहाकर भी जाता है । आगे नदी अपने तेज प्रवाह के साथ बहती हुई उस पाषाण को घसीटती घसीटती कहाँ से कहाँ ले जाती है। पानी निम्नप्रदेशमामी है । ढलान की नीची दिशा के प्रदेश में प्रवाहरूप से तेज बहते हुए पानी के साथ घसीटा जाता पत्थर घिस - घिसकर गोल भी बन जाता है । छोटा भी बन जाता है । नदी के तट में पडे हुए ऐसे गोल-मटोल चिकने पत्थर कई बार बडे ही मनमोहक लगते हैं । इस दृष्टान्त की तरह यह भव्यात्मा भी चार गति रूप संसार चक्र में कर्मसंयोगवशात् घसीटा - घूमता जाता है। एक गति से दूसरी गति, दूसरी से तीसरी गति में जाता जाता ८४ लाख जीव योनियों में दुःख की थपेडे खाता हुआ घूमता ही रहता है । इतने दुःख, नरक गति की अपार भयंकर वेदना, तिर्यंच गति के भयंकर दुःख, असहाय दारुण विपाक कर्मों को सहन करता-करता जीव अनाभोग रूप घर्षण द्वारा धर्मप्रवृत्तिरूप योग्य घाट में आता है । यथायोग्य संयोगों के मिलने से कषायों की मंदता के योग से कर्मस्थिति कम करता है । लाघव करता है । जैसे पाषाण गोल बनता है वैसे जीव भी कर्मक्षययोग्य बनता है। और धीरे धीरे चरमावर्त में आगे बढता हुआ सम्यक्त्व पाने की दिशा में आगे बढता हुआ ग्रन्थिदेश के समीप आता है । सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण ४९५
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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