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हुआ जीव कई कर्मों की स्थितियाँ कम करता है । यद्यपि यह स्वेच्छा एवं समझपूर्वक नहीं होता है फिर भी कर्मस्थितियाँ घटती हैं। ___उदाहरण के लिए समझिए कि... जैसे घूण नामक कीडा जो लकडों में रहता है
और लकडा काटता हुआ एक किनारे से दूसरे किनारे तक आता-जाता है, उस समय न जानते, न समझते हुए भी उस लकडे पर कुछ अक्षरों की आकृतियाँ बन जाती हैं । दीमक जिस तरह लकडे को काटती हुई–कुतरती हुई आगे बढती है, इसमें कुछ आकृति बन जाती है, जो हमें अक्षररूप भासमान होती है, इसे घूणाक्षर न्याय कहते हैं। घूण-कीडे को-दीमक को यह खबर नहीं है कि मैं क्या कर रही हूँ ? फिर भी अ-इ-उ–ओ आदि अक्षरों की आकृतियाँ बन जाती हैं । ठीक इसी तरह जीव यह नहीं जानता है कि मुझे कर्मनिर्जरा करनी है, फिर भी नासमझ अन्जान में भी जिन कर्मों की अकाम निर्जरा होती है और कर्म बंध की स्थिति घटती है, उसे यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं।
यथाप्रवृत्तिकरण का प्रयोजन
'किसी कपडे पर घी या तेल आदि का दाग पड़ने के बाद यदि उस पर धूल चिपक जाय तो फिर वह दाग स्पष्ट दिखाई नहीं देता है । परन्तु यदि धूल को दूर की जाय तो दाग दिखने लगता है । इसी तरह आत्मारूपी कपडे पर राग-द्वेष की निबिड ग्रंथि गांठ रूप दाग लगा हुआ है । यह दाग स्पष्ट रूप से दृष्टि पथ में आए इसके लिए उसको आच्छादित करनेवाली कर्मों की दीर्घ स्थितिरूप कर्मरज(धूल) दूर करनी चाहिए। इस कार्य को करने की शक्ति यथाप्रवृत्तिकरण में है । शुभ अध्यवसाय की सहायता से कर्मस्थिति का लाघव करके आत्मा अन्तस्थ ग्रन्थिस्थान को देख सकती है । इस राग-द्वेष की अनादि की ग्रन्थि का भेदन करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करके आत्मा का विकास करता हुआ जीव ग्रन्थिप्रदेश तक पहुँचे और इस तरह अपनी प्रबल आत्मशक्ति को स्फुरायमान करे यह यथाप्रवृत्तिकरण का प्रयोजन है । यह आगे के कार्यों के लिए कारणरूप है । यथाप्रवृत्तिकरण की प्रक्रिया
जैसे अनाज भरने की कोठी में अनाज भरा हुआ हो... और प्रतिदिन उसमें से अनाज निकालकर उपयोग करते ही रहें, परन्तु उसमें पुनः नए की पूर्ति न की जाय तो एक दिन तो वह कोठी खाली हो ही जाएगी। इसी तरह आत्मारूपी कोठी में अनाजरूपी कर्मों
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आध्यात्मिक विकास यात्रा