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________________ इस तरह १) तथाभव्यत्व २) तथाप्रकार का धर्मसाधक काल, ३) तथाप्रकार की मोक्षप्रापक भवितव्यता, ४) अशुभ कर्म का ह्रास और शुभ कर्म की पुष्टिरूप कर्म का योग तथा ५) विशुद्ध पुरुषार्थ ये पाँचों संयुक्त रूप से वरबोधि-श्रेष्ठ सम्यक्त्व की प्राप्ति में कारणभूत है । वरबोधि का स्वरूप और फल .... वरबोधि अर्थात् भवोदधितारक ऐसा श्रेष्ठ सम्यग् दर्शन .. और उसका लाभ किसे कहते हैं ? ... जिसमें जीव - अजीव, पुण्य-पाप, आश्रव - संवर, निर्जरा-बंध और मोक्ष, दृष्टादृष्ट पदार्थों का तत्त्वभूत तात्विक स्वरूप की स्पष्ट श्रद्धा प्रकट हो उसे वरबोधि का लाभ कहते हैं । अर्थात् वरबोधिलाभ शुद्ध श्रद्धा रूप है। ऐसा उसका स्वरूप है । ऐसी श्रद्धा की प्राप्ति के आधार पर... फलस्वरूप में- १) राग-द्वेष के तीव्र परिणामों की मंदता, २) फिर से सात कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का अबंध, ३) दुर्गति का अभाव, ४) बोधि की शुद्धि से आगे देशविरति - सर्वविरति - चारित्र की प्राप्ति, ५) रागादि भावों का क्षय, और ३) अन्त में मोक्ष ... ये सब वरबोधि के उत्तरोत्तर विशुद्ध फल हैं । धर्मसन्मुखीकरण काल ऐसा तथाभव्यत्व परिपक्ववाला जीव चरमावर्त में प्रवेश करके शुद्ध अध्यवसायों की तरफ अग्रसर होता है। जैसे शैशवकाल के बाद... किशोरावस्था का काल आता है और उसके पश्चात यौवन काल आता है वैसे ही चरमावर्त में प्रवेश करने के बाद आगे बढते हुए जीव के लिए भी धर्म का यौवनकाल आता है । अब जीव भवाभिनंदिता से ऊपर उठकर मोक्षाभिलाषी बनता है । अब जीव अपनी अनादिकालीन भवाभिनंदिता को छोडकर... ओघदृष्टि से बाहर निकलकर योगदृष्टि में पहुँचता है । प्रथम मित्रा एवं तारा दृष्टि में स्वल्पमात्र बोधज्ञान प्राप्त करता है । धर्मश्रवण करने की उसकी जिज्ञासा जागृत होती है । मन में उद्भूत धर्मश्रवण एवं दुःख निवृत्तिरूप शुभभाव रूप धर्मश्रवण करने की जिज्ञासारूप अभिलाषा के काल को धर्मसन्मुखीकरण काल कहा है। अनादि-अनन्त काल से जो जीव गाढ मिथ्यात्व के उदय में कभी भी धर्मसन्मुख हुआ ही नहीं था सदा ही जो अधर्मसन्मुख ही रहा था अब वह . . प्रथमबार धर्मसन्मुख बना है । यह उसका इस दिशा में प्रथम सोपान है। अनादि - अनन्त काल से संसार में परिभ्रमण करते हुए जीव भवाभिनंदिपने में से बाहर निकलकर मोक्षाभिलाषी प्रथम बार हुआ। जिससे मुक्ति I 1 ४९२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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