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________________ की प्राप्ति होने पर वह भी विराट वृक्ष की तरह मुक्ति फल को प्राप्त कर सकता है । आत्मा का विशिष्ट प्रकार का अकृत्रिम स्वभावविशेष ही तथाभव्यत्व कहलाता है । भव्यत्व अर्थात् आत्मा में रही हुई मोक्षप्राप्ति की स्वाभाविक योग्यता । यह आत्मा का मूलभूत सहज तत्त्व है, अतः यह अनादिकालीन है । भव्यत्व को जब काल-1 -नियति - पूर्वकृत कर्म, और पुरुषार्थ आदि सहयोगियों का योग मिल जाने पर भव्यत्व के बदले तथाभव्यत्व कहा जाता है । इन कालादि सहयोगी कारणों के कारण जीव में पूर्वोक्त धर्मबीजों की सिद्धि होती है । इन धर्मबीजों की प्राप्ति से कालादि सहकारी कारणों की विचित्रता के कारण मूलभूत भव्यत्व की अनेक कक्षाएं बन जाती हैं। इस तरह सभी भव्यों के साथ होता है। जैसे किसी जीव को किस प्रकार के कालादि सहयोगियों का साथ मिलता है, और किसी जीव को किस प्रकार के कालादि सहयोगियों का साथ मिलता है, उनमें तरतमता भेद के आधार पर तथाभव्यत्व की अनेक प्रकार की कक्षाएं बनती हैं। अतः इन कालादि सहयोगियों की योग्यायोग्य न्यूनाधिक प्राप्ति के आधार पर भव्यत्व भी भिन्न-भिन्न अनेक प्रकार का बनता है । इसीलिए उसे तथाभव्यत्व कहा जाता है । जिस तरह एक ही प्रकार के दूध में शक्कर - बादाम-पिस्ता - इलायची आदि कई प्रकार के मसाले - औषधियाँ आदि कम-ज्यादा प्रमाण में मिलने से उस दूध के स्वाद, पोषक तत्त्व, शक्ति आदि में कई भेद पडते हैं, इस भेद के कारण वह दूध अनेक प्रकार का गिना जाता है, ठीक उसी तरह भव्यजीव के भव्यत्व में भिन्न-भिन्न प्रकार के कालादि सहयोगी कारण न्यूनाधिक योग्यायोग्य प्रमाण में मिलने से अलग-अलग जीवों के आधार पर.... मोक्षप्राप्तिरूप कार्यसिद्धि में योग्यतारूप भव्यत्व भी भिन्न-भिन्न प्रकार का बनता है । वही एकसमान, एकरूप न होने से "तथाभव्यत्व" कहा जाता है । अतः भव्यत्व सभी मोक्षगामी जीवों का एक जैसा - एक समान होते हुए भी तथाभव्यत्व सबका भिन्न भिन्न प्रकार का होता है । जैसे कोठार में पडे हुए सभी धान्य एक जैसे ही होते हुए भी सब में उगने की योग्यता भी समान रूप से पडी हुई होते हुए भी हवा - पानी - जमीन - खाद - प्रकाशादि सहयोगिकारणों की जब प्राप्ति होगी ... जितने प्रमाण में प्राप्ति होगी, तब उतने प्रमाण में वैसे उगेंगे । सभी धान्यों को एक साथ आज ही पानी आदि सभी सहयोगी कारणों की प्राप्ति होने की संभवना हो या न भी हो, या प्रत्येक ४-६ महीने के बाद हो, या १-२ वर्ष के अन्तराल में हो, या एक धान्यबीज वर्षाऋतु में बोया गया जिसको पानी आदि सब पर्याप्त मात्रा में मिला और दूसरे को ग्रीष्मऋतु में बोया गया और उसको अनुकूल सहयोगिकारण पानी आदि पर्याप्त न मिला परन्तु प्रतिकूल तेज धूपादि के कारण ज्यादा I ४८८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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