________________
I
१) जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति में पूरी तरह से मन लगाना । उन्हें नमस्कार - प्रणामादि शुद्ध-कुशल मन से करना यह सबसे उत्तम योग- बीज है । यहाँ पर कुशल मन, संशुद्ध आदि का जो प्रयोग ग्रंथकर्ता ने किया है उससे वे स्पष्ट करना चाहते हैं कि ... आहारादि संज्ञाओं की अपेक्षारहित, क्रोधादि संज्ञाओ से भी रहित, तथा इहलोक—परलोक की आकांक्षारहित शुद्ध मानसिकी प्रीतिपूर्वक के कुशल चित्त से जिनेश्वर प्रभु को नमस्कार - प्रणाम - दर्शन-पूजनादि करना योग का उत्तम बीज है । आचार्य - उपाध्याय - साधु भगवंतादि के प्रति भी कुशल चित्तपूर्वक की सेवा - ३ -शुश्रूषा - भक्ति आदि रखना । इस तरह ६ श्लोकों में और कई योगबीज के साधन बताए हैं । द्रव्य अभिग्रहों का रुचिपूर्ण पालन, सिद्धान्त - शास्त्रभक्ति, शास्त्रपूजा, जिनवाणी श्रवण, शास्त्रार्पण, वांचन, विधिपूर्वक ज्ञानप्राप्ति, स्वाध्यायदि करना, अर्थचिंतन, भावनाओं का चिन्तन, दीन-दुःखी, अनाथों के प्रति यथासंभव दुःखनिवारक उपायों का करना, दया दान करना, अनुकम्पाभाव, गुणवान महापुरुषों के प्रति मात्सर्यवृत्ति का त्याग, औचित्य का पूर्ण पालन करना, इत्यादि अनेक प्रकार की ऐसी प्रवृत्तियाँ सम्यग् दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप उत्तम योगों की प्राप्ति के लिए आधारभूत योग के बीज हैं।
जिस तरह सुयोग्य भूमि में बोए गए बीज अंकुरित होते हैं ठीक उसी तरह योग के उपरोक्त बीज अपुनर्बंधक अवस्था को प्राप्त ऐसे आदिधार्मिक जीवों में अच्छी तरह अंकुरित होते हैं, बढते हैं । धर्म की निर्मल अनुमोदना - प्रशंसा करना यह धर्मबीज- योगबीज के बोने जैसा काम है। उन धर्मों की प्राप्ति करने की चिन्ता करना ये बीज के अंकुरित होने के समान है। धर्मकथा का श्रवण करना यह बीज से बढे हुए कंद के समान है । धर्माचरण करना यह पुष्प की दंडी के समान है। और अन्त में सर्व कर्म की निवृत्ति यह फल समान है ।
I
I
उपदेश पद ग्रन्थ की २२४ वीं गाथा में कहा है कि अच्छी बारिश होने पर भी बीज बोए बिना अनाज होता नहीं है । इसी तरह “जिनेषु कुशलं चित्ते” इत्यादि योगबीज बोए बिना तीर्थंकर परमात्माओं की उपस्थिति में भी आत्मा में धर्मवृक्ष कभी भी नहीं उग सकता है । योगदृष्टिसमुच्चय में कहते हैं कि योगबीज बोने के बाद मुक्तिपद की अवश्य प्राप्ति होती ही है, क्योंकि उपरोक्त योगबीज वन्ध्याबीज नहीं है। ये अवश्य फलद्रूप बीज है । योगबीज के बारे में पू. देवचन्द्रजी म. फरमाते हैं कि “बाधक परिणति सवि टले, साधक
1
आध्यात्मिक विकास यात्रा
४८६