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________________ सर्वनिंदात्याग - कृतज्ञता दाक्षिण्य, सदाचारी की प्रशंसा, संपत्ति में भी उचित वर्तन-व्यवहार अवसरोचित हित- मितभाषा प्रयोग, कुलाचार से विरुद्ध वर्तन का अभाव, वचनपालन, व्रतचुस्तता, अयोग्य धन व्यय न करना, प्रमाद का त्याग करना, लोक विरुद्ध - लोकनिंद्य कार्य का त्याग करना, प्रामाणिकपना दिखाना, अकार्य-अयोग्य कार्य का त्याग करना, नम्रतादि गुणों का गुणपूर्वक वर्तन-व्यवहार इत्यादि अनेक प्रकार के सुयोग्य वर्तन करने से सदाचारी कहा जाएगा। ३) तप- - सुयोग्य तप करना चाहिए। तपश्चर्या में भूतकाल के अनेक महापुरुषों के साथ जुडी हुई घटनाओं आदि के साथ जुडी हुई नामावली आदि से तप के अनेक प्रकार होते हैं । विविध तप के प्रकारों का आदरभावपूर्वक आराधन करना । उसमें विशेष रूप से ऐहिक सुखों की आकांक्षा रखे बिना नवकार महामंत्र आदि का विशेष सद्भावपूर्वक 1 आराधन करना । ४) मुक्ति अद्वेष - भवाभिनंदी जीवों को संसार की तीव्र आशंसा - आसक्ती होने से, संसार के सुखों की तीव्र लालसा रहने से मुक्ति के प्रति पूरा द्वेष रहता है। इसी कारण ऐसे जीवों की तप-जप- पूजादि धर्मक्रिया संसार की वृद्धि करानेवाली बन जाती है । मुक्ति का सर्वथा भाव या राग तो दूर रहा लेकिन मुक्ति पदार्थ का अद्वेष भी - पूजादि क्रिया के धर्मानुष्ठानों की सफलता में सहयोगी बनता है । परन्तु - पूजादि सद् अनुष्ठानों का तीव्र भाव- राग होना जरूरी है । इतना भी मुक्ति प्रति अद्वेष, और तपादि के प्रति रागादि का भाव अभवी जीव को कभी भी नहीं आता है । अतः अभवी जीव तप-जपादि सब धर्मानुष्ठान करें तो भी वे संसारवर्धक ही बनते हैं । तप-जपतप-जप योगबीज योग की पूर्व सेवा से योग बीजों का स्पष्ट वपन होता है। पू. हरिभद्रसूरि जी महाराज ने ललित विस्तरा ग्रंथ में योग के बीजों के बारे में काफी सुंदर वर्णन किया है। योगदृष्टि समुच्चय में— जिनेशु कुशलं चित्तं तन्नमस्कार एव च । प्रणामादि च संशुद्धं, योगबीजमुत्तमम् ॥ २३, सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण ३२ ॥ ४८५
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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