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“श्रीविंशिका” ग्रन्थ की चरमावर्तविंशिका के उपरोक्त श्लोकों में कह रहे हैं कि अचरमपुद्गल परावर्त जो अनन्त काल भवभ्रमण का = संसार का कारण होने से संसारवर्धक बाल्यकाल कहा है । जब तक योगबीजों की प्राप्ति नहीं होती है, तब तक के काल को बाल्यकाल कहा जाता है । तथा योगबीज की प्राप्ति के बाद के काल को धर्म का यौवनकाल कहा जाता है । अर्थात् अब अचरम काल से जीव चरम पुद्गल परावर्त काल में प्रवेश पा जाता है । वह धर्मसाधना का काल होने से उसको धर्म का यौवनकाल कहा जाता है । जीवों का भव्यत्व यहाँ पर काल-कर्म-भवितव्यतादि भिन्न-भिन्न कारणों के योग से तथाभव्यत्व रूप बनता है। इसी कारण की विचित्रता होने से जीवों के लिए मोक्षप्राप्ति हेतु चरमावर्तकाल भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है । अतः चरमावर्त में भी धर्म बीज-योग बीज की प्राप्ति के पहले के काल को बाल्यकाल या संसार काल ही समझना चाहिए और धर्मबीज-योगबीज की प्राप्ति के काल के पश्चात् के काल को धर्म का यौवनकाल समझना चाहिए। ऐसा भेद ऐसे जीव विशेषों के आचार और स्वभाव पर से समझ में आता है।
अपुनर्बंधक और इससे ऊपर के सम्यग्दृष्टि आत्माओं को अध्यात्म योग की प्राप्ति हो सकती है। परन्तु इसके लिए आवश्यक ऐसी योग की पूर्व सेवा का अभ्यास करना जरूरी है। योग की पूर्व सेवा के रूप में ४ हेतु मुख्य हैं- १) देव, गुरु आदि का पूजन, २) सदाचार, ३) तप, ४) और मुक्ति के प्रति अद्वेष ।
१) गुरुवंदन-पूजन-शुश्रूषा- मातापिता प्रथम गुरु है । विद्यादाता शिक्षक गुरु है। तथा धर्मगुरु धर्म प्राप्त करानेवाले हैं। इनको वंदन, त्रिकाल–तीनों काल वंदन, नमस्कार, उनकी सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए। उनकी निंदा-टीका कभी नहीं करनी चाहिए। आहार-दानादि विशेष रूप से उनकी भक्ती करनी चाहिए। इस तरह अनेक तरीकों से उनकी सेवा-शुश्रूषा-भक्ति-आज्ञापालन-धर्मवचनश्रवणादि करना चाहिए।
२) देवदर्शन-पूजन- अपने आराध्य देव उपास्य वीतरागी तीर्थंकर परमात्मा के नित्य त्रिकाल दर्शन-पूजन करना चाहिए । आदरभाव-पूज्यभावपूर्वक देवाधिदेव की नित्य पूजाभक्ति विशेष रूप से करनी चाहिए। प्रभु की गुणस्तुति आदि विशेष करनी चाहिए । आदि पद से आचार्य-उपाध्याय-साधु-भगवंत-व्रतधारी सुश्रावकवर्ग आदि सब की बहुमान-सन्मानपूर्वक भक्ति करनी चाहिए । सदाचार-संसार के लोक व्यवहार में दीन-हीन पर उपकार करना चाहिए। लोकनिंदा का भय रखना,
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आध्यात्मिक विकास यात्रा