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होगी, परन्तु वे उस प्रकारकी तीव्रतावाली नहीं होगी...जैसी पूर्वकाल में थी। अतः पुनः मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट बंध स्थिति कराने जैसी नहीं होगी।
आज दिन तक संसार की ८४ लाख जीवयोनियों में परिभ्रमण के काल में उत्कृष्ट बंधस्थितियाँ कर्म की अनन्तबार जीव बांध चुका है वैसी अब चरमावर्त में आकर अपुनर्बंधक बनकर दुबारा कभी भी नहीं बांधेगा ऐसा आदिधार्मिक बना है जीव । अपुनर्बंधक भाव में भी जैसे जैसे मनःसंक्लेश के भाव घटते जाएंगे वैसे वैसे उच्च-उच्च प्रकार की कक्षा प्राप्त होती ही जाएगी।
जैसे साँप सदा वक्रगति से टेढा-मेढा ही चलता है लेकिन अपने बिल में प्रवेश करते समय तो सीधा होकर ही प्रवेश करता है, उसी तरह मन जो हमेशा टेढा-मेढा वक्र चाल ही चलता है मोहनीय कर्म के कारण...अब चरमावर्त में प्रवेश रूप बिल में प्रवेश करके सीधा सरल हो जाता है। याद रखना मिथ्यात्व का घर माया है । जब तक माया कषाय की तीव्रता है तब तक जीव में सीधी सरलता नहीं आती है । और जब चित्त की वैसी सीधी-सरल स्थिति बन जाती है जो कर्म के क्षयोपशम से बनी है सरलता के कारण सीधे बने जीव में उत्तरोत्तर अनेक गुणों की वृद्धि का जो स्वरूप है उसे यहाँ मार्ग कहा है । और ऐसे मार्ग के अभिमुख-सन्मुख जो हुआ है वह मार्गाभिमुख कहलाता है । ऐसे क्षयोपशमरूप मार्ग में प्रवेश करने की योग्यतावाला जीव... मार्गाभिमुख कहलाता है। ऐसे क्षयोपशमभाव की जिसमें शुरुआत हो चुकी है ऐसा उत्तरोत्तर गुणवृद्धिवाला जीव मार्गपतित-मार्गपर चलनेवाला कहा जाता है। इस तरह क्षयोपशम बढते बढते जिस जीव में अन्तिम यथाप्रवृत्तिकरण समाप्त होने की तैयारी हो उस जीव को मार्गानुसारी कहा
ललितविस्तरा ग्रन्थ के आधार पर अपुनबंधक जीव मार्गानुसारी है। इसलिए उसकी ही प्रवृत्ति उत्तम है । वही आदिधार्मिक है । अन्तिम यथाप्रवृत्तिकरण में प्रवर्तमान जीव को मार्गानुसारी कहा है। वही विभिन्न अवस्थाओं में मार्गाभिमुख, मार्गपतित, मार्गानुसारी आदि धार्मिक-अपुनर्बंधक कहा जाता है । श्री धर्मसंग्रह ग्रन्थ के आधारपर चरमावर्तकालवर्ती जीव प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान की विकासयात्रा को क्रमशः चार नाम अवस्थानुसार इस तरह दिये जा सकते हैं। १) अपुनबंधकभाव-पुनः७० कोडा कोडी सागरोपम की मिथ्यात्व
मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति न बांधने वाला।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा