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________________ ठीक इसी तरह मिथ्यात्व की मन्दता के कारण अपुनर्बंधक अवस्था में जीव आदि धार्मिक बन जाता है । आदि का अर्थ है पाटी-पेन पकडनेवाले छोटे से बच्चे के जैसा आदि-प्रारंभिक काल-शरुआत का समय। ऐसा आदिधार्मिक मात्र जैन ही हो सकता है ऐसी कोई बात ही नहीं है । किसी भी धर्म का कोई भी हो सकता है । जो जिस धर्म में है... पला है उस पर उस धर्म के संस्कारों का सिंचन रहेगा। अतः वैसे संस्कारोंवाला वह उस धर्म का धर्मी गिना जा सकता है। बौद्धधर्मी उसे “बोधिसत्व"वाला कहते हैं। अन्य दर्शनवाले “शिष्ट” कहते हैं। सांख्य दर्शनवाले उसे “निवृत्तप्रकृत्यधिकार” कहते हैं। उसे ही जैन शास्त्रों में अपुनर्बंधक आदि धार्मिक कहा है। अन्यधर्मियों पर उनके संस्कार होंगे। परन्तु जो जीव जैनधर्म में जन्म लेकर जैन के संस्कारों से सुवासित हुआ है उस कक्षा के आदिधार्मिक के बारे में ललितविस्तरा ग्रन्थ में पू. हरिभद्रसूरि म. तो क्रमशः उसके विकास के संस्कारों से ओतप्रोत कई प्रकार के लक्षण दिखाते हैं--१) पापमित्रों का त्यागी होना चाहिए । २) कल्याण मित्रों का संगी। ३) औचित्य सेवी, ४) लोकाचार का अनुसरण करनेवाले, ५) माता-पिता-गुरु आदि का सन्मान करनेवाला, उनकी आज्ञा पालन ताला, ६) वादरुचि, ७) जिनपूजाभक्तिकारक, ८) साधु-कुसाधु का विवेकी, ९) शास्त्रश्रवण की रुचिवाला, १०) प्रयत्नपूर्वक शास्त्रचिन्तन करनेवाला, ११) यथासंभव शास्त्रानुसारी वर्तन भी करता हो, १२) धैर्यवान, १३) भावि परिणाम का विचारक दीर्घदर्शी, १४) मृत्यु को समक्ष रखकर परलोकहितार्थ कुछ करनेवाला, १५) गुरुजनसेवाकारी, १६) जाप-दर्शन-ध्यानादि करनेवाला,१७) योगादि की साधनारुचि,१८) ज्ञानादि योग सिद्धि में तत्पर, १९) जिनप्रतिमा भरानेवाला, २०) जिनागम लिखानेवाला, २१) नवकार मंत्र का जापादि करनेवाला, २२) चउसरण अंगीकारकारक, २३) दुष्कृतगर्दा, सुकृत अनुमोदनाकारक, २४) अधिष्ठायकादि देव देवियों की पूजा-भक्तिकारक २५) सदाचार श्रवणकारक, २६) उदार गुणधारक, २७) उत्तमपुरुषों के आचारों का अनुसरण करनेवाला इत्यादि कई लक्षण बताए हैं । ऐसे लक्षणों से युक्त जैन परंपरा के संस्कारों से सिंचित इस प्रकार की वृत्ति-प्रवृत्तिवाला जीव अपुनर्बंधक-आदिधार्मिक कहलाता है। चरमावर्तवर्ती जीवों को शुक्लपाक्षिक कहा है । मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट बंध स्थिति का जो गाढतम अंधकार रूप कृष्णपक्ष दूर हो गया है अतः शुक्लपाक्षिक जीव कहलाता है। और अनेक गुणों के उदय से गुणों का प्रकाश कुछ प्रगटाकर शुक्लपाक्षिक की कक्षा प्राप्त की है । ऐसे आदिधार्मिक जीव की प्रवृत्तियाँ अधिकांश उत्तम होती है। पूर्वकाल की तुलना में ज्यादा उत्तम कही जाती है । हाँ, ठीक है कुछ अनुचित विचित्र प्रवृत्तियाँ भी सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण ४८१
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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