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इस क्रम में देखिए — सर्वप्रथम प्राथमिक कक्षा में जीव दुर्जन की भूमिका में पडा हुआ है । उसकी दुर्जनता कम होने पर सामान्य जन के रूप में गिना जाता है । “जनता” । ऐसे सामान्य जनों का समूह जो है उसे जनता की संज्ञा दी जाती है । जब मिथ्यात्व की मन्दता के कारण मार्गानुसारी के कुछ गुण व्यवहारिक रूप से भी आचरण में आने लगते हैं तब वह सज्जन बनता है। ऐसी सज्जनता की कक्षा में से एक कदम और जब आगे बढता है तब वह महाजन बनता है। महाजन एक न्यायाधीश के समान पूर्ण न्याय—नीतिमत्तावाला होता है। मार्गानुसारी के सभी ३५ गुण महाजन में दिखाई देते हैं I आगे के सोपानों पर चढता हुआ एक कदम और जब आगे बढता है तब वह परमोत्तम जन बनता है । सबसे ऊँची कक्षा का... परम उत्कृष्ट कक्षा का जन बनता है । यहाँ तक मिथ्यात्व जिस तरह मन्द - मन्दतर - मन्दतम होता गया वैसे वैसे वह एक-एक कदम आगे बढता गया । यहाँ तक पहले मिथ्यात्व गुणस्थान की ही स्थिति है। ऐसी पूर्व भूमिका मिथ्यात्वी बना सकता है । अतः मिथ्यात्व को भी गुणस्थान का दर्जा दिया गया है। कुछ तो सामान्य गुणों को लेकर ही बैठा है। विशिष्ट कक्षा के विशेष की बात तो बाद में है । सज्जनता या महाजनपद प्राप्त करना बहुत आसान है लेकिन “जैनत्वपना” प्राप्त करना अत्यन्त कठीन है । इसकी प्रक्रिया समझने की दिशा में ही हम आगे बढते हैं ।
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मार्गाभिमुख मार्गपतित-मार्गानुसारी भाव
शास्त्रकार महर्षि पू. हरिभद्रसूरि म, धर्मसंग्रह के कर्ता मानविजय म, आदि महापुरुषों ने योगदृष्टि समुच्चयादि ग्रन्थों में अपुनर्बंधक अवस्था में ही "आदि-धार्मिक” अवस्था बताई है। उग्र कषायों की वृत्ति शान्त होकर मिथ्यात्व तथा कषाय सर्वथा मन्द होने के कारण अब चरमावर्तवर्ती जीव पुनः ७० कोडाकोडी सागरोपम की मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति नहीं बांधता है । अतः अपुनर्बंधक कहलाता है । उसी अवस्था में वह जीव आदिधार्मिक कहा जाता है । जैसे ३-४ साल के बच्चे को सर्वप्रथम स्कूल में प्रविष्ट किया जाता है। अभी वह बच्चा सर्वप्रथम पाटी-पेन हाथ में पकडना भी नहीं जानता है फिर भी कुछ लिखने की तमन्ना है । वह पाटी पर पेन से कुछ भी घसीट
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देता है । न तो कुछ अक्षर का आकार बना है और न ही कुछ उसे अक्षर बोध होता है ऐसी अवस्था को भी सामान्य से ओघसंज्ञा से बच्चा स्कूल में पढ रहा है। स्कूल में है ऐसा ही भाषा का व्यवहार करते हैं ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा