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________________ आई है। यह व्रत - नियम- पच्चक्खाण आदि की बातें तो सर्वोच्च कक्षा की सर्वश्रेष्ठ धर्म की सर्वोत्तम बातें हैं । परन्तु इनकी शोभा बढाने के लिए इस विशेषता को लाने के लिए . मन्द मिथ्यात्व की स्थिति में मार्गानुसारी के ३५ गुणों का होना आवश्यक है । इससे पात्रता - योग्यता बढती है । ये ३५ गुण एक सामान्य सज्जन — शिष्ट-सभ्य पुरुष के लिए होने शोभास्पद हैं। पूरे आवश्यक हैं। जिनके होने से आगे का लोकोत्तर भी शोभायमान होता है । लोकोत्तर धर्म को स्थिर रूप से स्थायी होने के लिए आधारभूत विशेषता है । 1 I मार्गानुसारी के इन ३५ गुणों की भूमिका न बनने पर भी यदि आगे का लोकोत्तर कक्षा का जैन धर्म मिल भी जाय तो वह इतनी शोभा नहीं देता है। आगे भविष्य में जैन धर्म की भी निंदा-बदनामी होने की पूरी संभावना है। मान लो कि यदि ... व्यक्ति में न्याय-नीतिमत्ता, सज्जनता ही नहीं है, और कल वह व्रत - पच्चक्खाण लेकर जैन धर्म . पालता है तो बदनामी के खतरे ज्यादा रहते हैं । अतः ये मार्गानुसारी के ३५ गुण जो व्यवहारिक है, लौकिक कक्षा के हैं, ये आधारशिला समान हैं। इनसे पात्रता - योग्यता निर्माण करनी चाहिए। ताकि भविष्य में स्वीकार किये गए जैन धर्म के १२ व्रतादि अच्छी तरह पल सकें। ये मार्गानुसारी के ३५ गुणों की प्राप्ति तो प्रथम मिथ्यात्व के गुणस्थान पर मिथ्यात्व की मन्दता के कारण है। जबकि जैन धर्म की प्राप्ति तो चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान पर पहुँचने के बाद सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद से प्रारंभ होती है । दुर्जन सामान्य जन २ सज्जन महाजन ४ सम्यक्त्वगुणस्थान पर आरोहण परमोत्तम जन जैन ४७९
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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