________________
दया—दान की घातक है । अतः सर्वप्रथम स्वभाव से सौम्य बनना चाहिए। सौम्यता चेहरे पर भी झलकती है। सौम्य व्यक्ति को सभी चाहते हैं । वह सर्वप्रिय - लोकप्रिय बनता है । स्व-पर उभय को लाभ करानेवाला बनता है ।
1
३४) निंदात्याग - पराई निंदा - कुथली पर प्रपंच आदि का सर्वथा त्याग करना चाहिए । परनिंदा करने की कुटेव से स्वयं लोक में निंद्य व्यक्ति बनता है । लोग उससे दूर रहना पसंद करेंगे और उसके प्रति शंकाशील बनकर कोई विश्वास नहीं करेगा । इसलिए परनिंदक अविश्वसनीय बनता है । परनिंदा करके स्वयं नीचगोत्र कर्म बांधकर कई जन्मों तक नीच कुल में जन्म लेगा । अतः ईर्ष्या-द्वेष - अदेखाई का त्याग करके परनिंदा से बचें |
३५) गुणपक्षपात - गुणानुराग - स्वयं जिसको गुणवान बनना है उसको सर्वप्रथम दूसरों के गुणों को सतत देखते हुए गुणानुरागी बनना जरूरी है। सगे स्नेही स्वजन के साथ भी कलहादि के प्रसंग में भी गुणों की तरफ पक्षपात करना चाहिए । गुणवान महापुरुषों की कदर करते हुए उन्हें ज्यादा इज्जत देनी चाहिए। गुणानुरागी लोहचुम्बक की तरह गुणाकर्षी होता है । अन्यों में देखे हुए गुणों को खींचकर अपने में लाता है गुणग्राही बनने से ईर्ष्या - द्वेष - मत्सर - वृत्ति घटती है। किसी के भी छोटे-बडे गुण को देखकर प्रसन्न होना चाहिए। जिससे वे गुण अपने में आते हैं। स्वयं गुणों का भण्डार बनता है । गुणील मृत्यु के बाद भी जनमानस के स्मृतिपटल पर सदा बना रहता है गुण-गुणी पूजे जाते हैं ।
1
1
लोकोत्तर धर्म की आधारशिला
/
जिनेश्वर परमात्मा सर्वज्ञ प्रभु प्रणीत लोकोत्तर कक्षा का सर्वोत्तम आर्हत् धर्म प्राप्त करने के लिए “मार्गानुसारीपने ” का यह लौकिक धर्म उसकी आधारशिला है । मिथ्यात्व काफी मंद पड जाता है तब जाकर इस प्रकार के लौकिक कक्षा के मार्गानुसारीपने की प्राप्ति होती है । ये ३५ गुण ऐसे गुण हैं कि हिन्दू - बौद्ध-मुस्लिम - ख्रिस्ती किसी में भी पाए जा सकते हैं । आप देखेंगे कि इन ३५ गुणों में एक भी बात जैन धर्म की अभी तक नहीं आई है। न तो पूजा-पाठ की या न ही आयंबिल - उपवास की, या न ही सामायिक - प्रतिक्रमण की, या न ही किसी भी प्रकार के व्रत - पच्चक्खाण की । किसी भी प्रकार की एक भी जैन धर्म का ओप लगे, या ओप लगा हुआ दिखाई दे ऐसी बात ही नहीं
1
४७८
आध्यात्मिक विकास यात्रा