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फल मुझे भुगतना पडेगा । इस तरह पाप की भारी सजा, फल को दृष्टिसमक्ष रखकर, वर्तमान में पाप न करने के लिए मानसिक भय पैदा करना संसार में भले किसी से न डरे लेकिन पाप से तो जरूर डरे । व्यक्ति जिससे डरता है उसी से दूर रहता है । बचता है ।
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२९) दया - दानप्रिय - किसी के दुःख को देखकर अपना दिल पिघलना ही चाहिए । उसे दया कहते हैं । और जब दयाभाव प्रगट हो जाता है तो किसी के दुःख को दूर करने के लिए पूर्ण रूप से सहयोग करना वह दान कहलाता है । प्राणी मात्र के प्रति वैसा दयाभाव रखना चाहिए। करुणा भावना के रूप में बढनी चाहिए और दान आचार क्षेत्र में सदा बढना चाहिए । दान का जन्मस्थान है दया- करुणा । दयालु - करुणालु ।
३०) विशेषज्ञता - बुद्धि के आठ गुणों का विकास करके स्वयं ज्ञान-विज्ञान के. सर्व क्षेत्र में विशेषज्ञ बनना चाहिए। सामान्यरूप से भी पदार्थों तत्त्वों को अल्पस्वरूप में जाना जाता है । जबकि विशेषरूप से जानने की इच्छा होनी चाहिए। विशेषज्ञ बननेवाला वस्तुतत्त्व की गहराई में जाता है। लोक व्यवहार में भी यदि किसी की बात को सुनकर जल्दी से बन जाय या क्रोध करले तो अनर्थ हो जाता है । अतः विशेषज्ञ बनकर पूर्ण उचित न्याय करें ।
३१) लज्जालुता - लज्जा यह जन्मजात गुण है । शरमिंदा होना। यह मात्र स्त्री काही गुण है ऐसा नहीं । पुरुष में भी होना ही चाहिए। स्त्री की आँखों में शरम रहनी चाहिए। लौकिक सामाजिक व्यवहार में लज्जा रहनी चाहिए। पुरुष के जीवन में मर्यादा का पालन होना ही चाहिए । परस्त्री आदि के प्रति लज्जाशीलता का स्वभाव रहना चाहिए। इस लज्जाशीलता के कारण कषायों से बचा जा सकता है।
३२) परोपकारपरायण - परोपकारपटुता होनी चाहिए। दया- करुणा का भाव लाकर-बढाकर दूसरों के दुःख में सहभागी बनने की भावना से, कुछ कर मिटने की भावना से परोपकार करने की वृत्ति रहनी चाहिए। पर व्यक्ति पर परोपकार करने का लक्ष रहना चाहिए। यदि सभी जीव परोपकारी बनकर सब पर परोपकार करने में तत्पर बन जाय तो संसार में दुःख का नाम निशान ही न रहे।
(३३) सौम्यता - स्वभाव में क्रूरता - कठोरता - निष्ठुरता न लाकर सौम्यता लानी चाहिए । क्रूरतादि हिंसा कारक है । व्यक्ति को हिंसक क्रूर बना देते हैं । निष्ठुरता- क्रूरता
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सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण