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चरम सत्य प्रकट है | अतः नित्य धर्मश्रवण, उपदेश, प्रवचन, श्रवण रुचिवाले ही बनना चाहिए। धर्मश्रवण नित्य ही ज्ञानवर्धक है । मन को शान्त करने में सहायक है ।
२०) अरिषड्वर्गत्याग - काम, क्रोध, माया, लोभ, मद, हर्षादि प्रमुख आंतरिक विषय—कषायरूप ६ अरि = शत्रुओं का प्रयत्नपूर्वक भी त्याग करना चाहिए। ये वैसे भी अपनी इज्जत घटानेवाले हैं। ये कातिल जहर समान हैं। कुल - रूप-बलऐश्वर्य - ज्ञान - विद्या - तप-जाति आदि आठों प्रकार के मद-मान के सेवन से पुनः पतन होता है । अतः अरिषड्वर्ग के सेवन से अधःपतन - - नुकसानादि काफी ज्यादा प्रमाण में होता है । अतः इनका त्याग ही श्रेयस्कर - हितकारी है ।
२१) इन्द्रियजय - यह संसार पांचों इन्द्रियों के २३ विषयों से परिपूर्ण है । विषय भोग की लालसा कम करते हुए. इन्द्रियों के ऐन्द्रिय सुखों से ऊपर उठने की कोशिश करनी चाहिए । इन्द्रियों के गुलाम - आधीन बनकर रहने में अपकीर्ति - आदि कई प्रकार के नुकसानों की संभावना ज्यादा है । यह समझकर अतिशय इन्द्रिय सुखों में आसक्त न बनकर इन्द्रियजयी बनना चाहिए।
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२२) माता - पितादि गुरुजन सन्मान- माता-पिता - स्नेही- स्वजन के वडीलवर्ग, धर्मोपदेशक गुरुवर्ग, आदि सब मेरे अनन्त उपकारी हैं यह समझकर उनके प्रति विनय—विवेक से नम्रतापूर्वक व्यवहार करना । उनका सत्कार, सन्मान तथा सेवा करना तथा इस तरह से उन्हें सन्तुष्ट करके आशीर्वाद प्राप्त करना । सदा ही इस लक्ष्य के लिए उत्सुक रहना ।
२३) पोष्य - पोषण - यथोचित विनियोग - आजीविका की समतुला बरोबर सुव्यवस्थित बैठानी चाहिए। तथा साथ ही अपने ऊपर जिनके जीवन निर्वाह की जिम्मेदारी है उनका पोषण अवश्य करें । सक्षम को सही कार्य में नियुक्त करें । आश्रितों को बेकारी से बचाकर कार्यरत रखना । उचित निष्पाप व्यापार की दिशा बताना । इसी तरह स्वाश्रित, विधवा, बहन के परिवार का पोषण भी आदर - प्रेम पूर्वक करना । अपने आश्रितों पर लापरवाही करें। उनकी आवश्यकताएं पूर्ण करनी चाहिए ।
२४) अतिथि सत्कार - देव-गुरु- अतिथिजन की सेवा करनी चाहिए । सत्कार—सन्मान करना । अतिथि गुरु भगवंतों के आगमन पर अपार हर्ष - आनन्द व्यक्त
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण
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