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१४) निन्द्य प्रवृत्ति त्याग- जगत में सर्वमान्य निन्दनीय हल्के पाप के कार्य परस्त्रीगमन, वेश्यागमन, मदिरा सेवन, जुआं खेलना, माता-पिता-राजा-गुरुद्रोह, मांसभक्षण, हिंसा, झूठ, चोरी इत्यादि अनेक ऐसी निन्द्य प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग करना चाहिए। कुल-धर्म को कलंक लगानेवाले निन्दनीय हल्के कामों का त्याग करना ।
१५) शिष्टाचार प्रशंसा- गुणप्रशंसा गुणाकर्षिणी है। अतः शिष्ट अर्थात् सभ्य-सज्जन पुरुष जो आचार में विचार में व्यवहार-वाणी-वर्तन तथा गुणों में भी शिष्ट-सज्जन है उनके शिष्टाचार की प्रशंसा करनी चाहिए। विश्वासघातादि न करना। बिना कृत्रिमता के सभ्य–शिष्टपुरुषों के प्रशंसक बनना।
१६) बुद्धिशालीपना-प्रज्ञावान- तर्क-वितर्कादि बुद्धि के आठ गुणों से युक्त बनना। अपनी प्रज्ञा को बढाकर पूरी तरह उपयोग करना, युक्तियाँ लगाना, किसी की समस्याओं का समाधान करना । सत्य की निष्ठा रखना । ज्ञान-विज्ञान की विशेषताओं का चिन्तनादि करके तत्त्वभूत पदार्थों को स्वयं समझना और अन्यों को समझाना चाहिए। अज्ञान निवृत्ति करना। -- १७) दीर्घदर्शिता-बडे वडील वर्ग के उत्तम पुरुषों से अनुभव प्राप्त करके स्वयं दीर्घदर्शी बनना । मुसीबतों में भी लम्बे भविष्य का सोचना । लम्बे भविष्य का हिताहित सोचकर फिर निर्णय लेना। भावि में इसके प्रत्याघात क्या आ सकते हैं ? ऐसा समझकर वर्तमान में ही वैसा सुधार करना । सर्वथा संकुचित वृत्ति रखकर न चलना। विशाल दृष्टि रखना । व्यापक बुद्धि दौडाना । स्वकेन्द्रित स्वार्थवृत्ति न रखना। . १८) कदाग्रह त्याग-अज्ञानतावश या फिर मिथ्यावृत्ति के कारण किसी भी बात में किसी के भी सामने आभिनिवेशिक भाव-कदाग्रह न रखें । पूर्वग्रह के कारण बुद्धि एक ही जगह फस जाती है । रुक जाती है। फिर आगे विकास नहीं होता है । कदाग्रहवृत्ति जल्दी मिथ्यात्व की तरफ घसीटकर ले जाती है। ज्ञान के द्वार, सत्य का रास्ता खल्ला रखकर कदाग्रही कभी भी नहीं बनना।
आचार प्रधान
१९) धर्मश्रवण-धर्म का स्वरूप ज्ञानात्मक क्रियात्मक उभयस्वरूप है । धर्म सर्वज्ञ की वाणी-आज्ञा स्वरूप है। उसमें आत्मा से लेकर मोक्षतक के सभी तत्त्वों का
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आध्यात्मिक विकास यात्रा